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[हिन्दी जैन साहित्य का जाती है, परन्तु वह अभी तक उपलब्ध नहीं हुई है। प्रेमीजी को कुछ फुटकर गीत मिले हैं, उन्हें वह इसी का अनुमान करते हैं। एक गीत का निम्नलिखित पद उन्होंने उदाहरण में उपस्थित किया था
"चेतन, अचरज भारी, यह मेरे जिय आवै । अमृत वचन हितकारी, सदगुरु सुमहिं पढ़ावै ॥ सदगुरु तुमहिं पढ़ावै चित दे, अरु तुमहू हौ ज्ञानी । तबहू तुमहिं न क्योहूँ, अवा, चेतन तत्व कहानी ॥ विषयनि की चतुराई कहिए, को सरि करै तुम्हारी ।
बिन गुरु फुरत कुविद्या कैसे, चेतन अचरज भारी॥" रूपचंदजी का 'मंगलगीतप्रबंध' जैन समाज में 'पंचमंगल' के नाम से बहुत ही प्रचलित है। इसकी रचना उत्तम है ।
श्री अंजनासुंदरीरास सत्रहवीं शताब्दी की रचना है। तपा. गच्छ में श्रीहरिविजयजी सूरि के परम्परा शिष्य श्री विद्याहर्पसूरि हुए और उसके शिष्य गणि महानन्द । उन्होंने इस रासग्रन्थ को रायपुर नगर में संवत् १६६१ में रचा था। इसकी भापा में गुजराती भाषा के शब्दों का बाहुल्य है। इसलिये इसे हम गुजराती मिश्रित हिन्दी कह सकते हैं। मालूम होता है कि गणि महानन्दजी गुजरात के अधिवासी थे। उनकी रचना प्रसाद-गुण-सम्पन्न है। श्रीजैन-सिद्धान्त-भवन आरा में इसकी 'एक प्राचीन प्रति मौजूद है । इस प्रति में कुल २२ पत्र हैं । रचना का नमूना देखिये:
"फूलिय वनइ वनमालीय वालीय करई रे टकोल । करि कुंकम रंग रोलीय घोलीय सकम झोल ॥