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________________ संक्षिप्त इतिहास] १०७ हिन्दी में इनकी छोटी छोटी पद्यरचनाएँ मिलती हैं। उदाहरण. स्वरूप नेमिनाथ तीर्थकर का स्तुति पद्य देखिये "घनघोर घटा उनयी जु नई, इतत उततै चमकी बिजली । पियुरे पियुरे पपिहा बिललाति जु, मोर किंगार करंति मिली ॥ बिच बिंदु परे ग आंसु झरें, दुनि धार अपार इसी निकली। मुनि हेमके साहिब देखन कूँ, उग्रसेन लली सु अकेली चली ॥" रूपचन्दजी कविवर बनारसीदासजी के समय आगरे में हुए हैं। बनारसीदासजी ने इन्हें बहुत बड़ा विद्वान् बताया है। निस्सन्देह रूपचंदजी जैनधर्म के अच्छे मर्मज्ञ थे। उनके 'पर. मार्थीदोहाशतक' से रूपचंदजी का आध्यात्मिक पाण्डित्य झलकता है। प्रेमीजी ने बहुत दिन हुये जब अपने 'जैनहितैषी' पत्र में उन्हें प्रकाशित किया था और वह इनकी सम्मति में एक उच्च कोटि की रचना है। उदाहरण के लिए देखिए "चेतन चित् परिचय बिना, जप तप सबै निरस्थ । कन बिन तुस जिमि फटकतें, भावै कछू न हस्थ ॥ चेतन सौ परिचय नहीं, कहा भये प्रत धारि । सालि बिहनें खेत की, वृथा बनावत वारि ॥ बिना तत्त्व परिचय लगत, अपरभाव अभिराम । ताम और रस रुचत हैं, अमृत न चाख्यो जाम ॥ भ्रम तै भूल्यौ अपनपौ, खोजत किन घट मांहि । बिसरी वस्तु न कर चढे, जो देखे घर चाहि ॥" किस खूबी से प्रत्येक दोहे में जो बात पहले कही है, उसकी पुष्टि उदाहरण द्वारा उत्तरार्द्ध में की है। सभी दोहे इसी प्रकार के बड़े सुन्दर हैं। 'गीतपरमार्थी' भी उनकी रचना बतलायी
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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