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________________ १०६ [हिन्दी चैन साहित्य का भविष्यदत्त ने उसे बंदी बनाया और हस्तिनापुर-भूपाल के चरणों में लाकर डाल दिया"जहां बैठा जु नरिंद भोपाल, चरणे ले मेल्हा ततकाल । राय भोपाल आनंद मन भया, बह सन्मान भविस का किया ॥" गुण-गौरव भला कब किसके हाथ बिका? कल्याणदेव श्वेताम्बर साधु जिनचन्द्र सूरि के शिष्य थे। इनका एक ग्रन्थ 'देवराज-बच्छराजचौपई' उपलब्ध है, जिसे उन्होंने सं० १६४३ में विक्रम नामक नगर में रचा था। इसमें एक राजा के बच्छराज और देवराज नामक दो पुत्रों की कहानी लिखी गई है। यद्यपि बच्छराज बड़ा था, परंतु मूर्ख था, इसलिये राज्य देवराज को मिला। बच्छराज घर से निकल गया। कष्टों को सहन करते हुए उसने अपनी उन्नति की और वापिस घर आया। भाई ने उसकी परीक्षाएँ ली; बच्छराज उत्तीर्ण हुआ और आधे राज्य का स्वामी हुआ। प्रेमीजी ने इस ग्रंथ को देखा है और वह इसकी रचना साधारण बताते हैं। भाषा में, अन्य श्वेताम्बर रचनाओं की तरह, इसमें भी गुजराती भाषा का मिश्रण है। उदाहरण देखियेः 'जिणवर चरण कमल नमी, सुह गुरु हीय धरेसि । समरयां सवि सुख संपजइ, भाजइ सयल कलेसि॥" हेमविजय एक अन्धे विद्वान और कवि थे। इनके गुरु सुप्रसिद्ध आचार्य हरिविजय सूरि थे। संस्कृत शषा में 'कथा रखाकर' आदि कई सुन्दर ग्रन्थों का इन्होंने प्रणयन किया है। *हि० इ०, पृ. ४७-४८
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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