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संक्षिप्त इतिहास]
१०५ ___ कवि सालिवाहन हिन्दी को 'देवगिरा' भाषा कहकर सम्बोधित करते हैं, इससे अनुमान होता है कि उस समम आगरा में हिन्दी पूज्य भाव से देखी जाती थी।
पांडे हरिकृष्णजी मुनि विनयसागर के शिष्य थे। उन्होंने 'चतुदशीव्रतकथा' संवत् १६९९ में रची थी । नमूना देखिए
"रस रस भूधर मही' सो जोई, श्रावण शुक्ल आठ दिन होई । विनयसागर की आज्ञा करी, हरिकृष्ण पांडे चित मै धरी ॥"
इनकी और भी रचनाएं मिलती हैं। यह यमसारनगर के निवासी थे।
पं० बनवारीलालजी माखनपुर के निवासी थे। उन्होंने खतौली के चैत्यालय में बैठकर 'भविष्यदत्तचरित्र' की रचना संवत् १६६६ में की थी। कवि धनपाल के अपभ्रंश प्राकृत भाषामें रचे हुए 'भविष्यदत्त चरित्र' का इसे पद्यानुवाद समझना चाहिये। कविता साधारण है । वणिक् पुत्र भविष्यदत्त अपने हस्तिनापुरवाले राजा के शत्रु से लड़ने का बीड़ा चबाता है । नरपति सशङ्क होता है, और उत्तर में कहता है
"रण संग्राम पीठ नहिं देउं, हांको सुभट जगत यश लेउं ।
परचक्री आन लगाऊं पाय, तो मुंह दिखाऊं तुझको आय ॥" जो कहा वही उस वणिक-वीर ने कर दिखाया"रण संग्राम भिड़े सो जाय, पायक लाग्या पायक आय । गयवर सो गयवर भिडे, रथ सेती रथही सो जुई। रणधर आगै मागै वीर, कोलाहलु सेनाहु गहीर । अनी मुड़ी पोदनपुर राय, उलटा दल भाग्या खो जाय ।