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[हिन्दी मैन साहित्यका
चतुर बनजारे हो! कावा नगर मंझारि , चेतनु बनजारा रहइ मेरे नाइक हो। सुमति कुमति दो नारि, तिहि संग नेह अधिक गहइ, मेरे नाइक हो ॥२॥ चतुर बनजारे हो ! तेरह म्रिगनैनी तिय दोइ , इक गोरो इक सांवली, मेरे नाइक हो। तेरे गोरड काज सुलोइ, सांवल हइ लड़वावली, मेरे नाइक हो ॥३॥"
इत्यादि। सारांशतः कवि भगवतीदास की सब ही रचनायें समष्टि को लक्ष्य करक लिखी गई हैं। कवि की भावना यही रही है कि जनता का अधिक-से-अधिक उपकार हो।
कवि सालिवाहन भदावर प्रान्त में कंचनपुर नगर के अधिवासी थे। वहाँ लंबेचू जैनी अधिक संख्या में रहते थे और हरिसिंहदेव नाम का राजा राज्य करता था। कविके पिता रावत परगसेन थे और उनके गुरु भ० जगभूषण थे। । ० १६९५ में कवि ने आगरे में 'हरिवंश पुरान' की रचना की थी। वह श्री जिनसेनाचार्यकृत संस्कृत भाषा के 'हरिवंशपुराण' का पद्यानुवाद है। कविने स्वयं कहा है कि "जिनसेनु पुरानु सुनौ मैं नामसाकी छाया लै चौपई करी।" वस्तुतः इसमें प्रायः चौपई छंद का ही ओत-प्रोत प्रवाह है। कविता साधारण है। प्रारंभ का छन्द देखिये
"प्रथम वंदि भी रिषभ जिणंद, जा सुमरंतहि होय भानंद । बंदू गणधर सरस्वती माय, जा प्रसाद बहु बुधि पसाय ॥१॥"