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________________ १०३ संचित इतिहास] "पेषहु हो! तुम पेषहु भाई, जोगी जगमहिं सोई। घट-घट अन्तर बसइ चिदानन्दु, मलषु न लषई कोई ॥ भव-वन भूलि रौ भ्रमिरावलु, सिवपुर सुधि विसराई। परम अतिंदिय सिब सुषु तजिकर, विषयनि रहिउ लुभाई ॥" (योगीरासा) अब कविके सुभाषित नीति-पा भी पढ़िये "जिण विणु जपु नवि सोहह, तपु नवि बंभ विना । तप विणु मुणि नवि सोहह, पंकजु अम्भ विनां ।। समकित विणु वरतु न सोहह, संजमु धम्म विनां । दया विणु धम्म न सोहा, उदिमु कर्म विनां ॥" (खिचड़ीरासु) 'अनुप्रेक्षा-भावना' में अनित्यत्व का चित्रण कवि की प्रतिभा का द्योतक है। देखिये "अवधू ! जाणिए होधू, किछु देपिय नाहि । किउं रुचि मानि एहो, विहुई जो षिणमाहि ॥ पिणमाहि जाहि विलास मंदिर, बंधु-सुत-वित अतिघणा। जल-रेह-देह-सनेहु-तिय, दामिनि-दमक जिउं जोवनां ॥ जिस हति जात न वार लागई, बुलबुला जल पेषिए । अवधू ! परीक्ष कहौ जिअ, सिउ-धून किछु जगि देषिए ?" कवि की 'बनजारा' शीर्षक कविता जनसाधारण के लिये बड़ी रोचक रही होगी। कवि ने उसे भी अध्यात्मरस की मादकता से भर दिया है। प्रारंभ के दो-तीन पद्य देखिये "चतुर बनजारे हो! नमणु करहु जिणराह , सारद-पद सिर ध्याइ, ए मेरे नाइक हो ॥1॥
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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