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[हिन्दी जैन साहित्य का रचना है, जिसे लोग संभवतः कीर्तन की तरह गाया करते थे। उसमें संगीत की स्वरलहरी का ध्यान रक्खा गया है । संभव है कि सवेश्यामजी की 'रामायण' की तरह उस समय ढमालशैला की रचनाएँ जनसाधारण के लिये शिक्षा के साथ-साथ मनोरंजन की चीज थी। लोग उन्हें जयकार के साथ गाते थे। इसका उदाहरण देखिये
"पंच परम गुरु बंदिवि, करि सारद जयकारु । गुरुपद-पंकज पणमौं, सुमति-सुगति-दासारु ॥ सोरटि देस भला सब देसनि मइ परधानु । महि मंडलु इउं राजति जिउ नभ-मंडलु भानु ॥
कोटि जतन कोई करिहौ जीवन तौ नित नाहिं । तनु-धनु-जीवनु विनसइ, कीरति रहइ जग मांहि ॥६॥ मुनि महेन्द्रसेन गुरु सिंह जुग चरन पसाइ । भाषत दास भगवती, थानि कपिस्थलि आइ ॥६१॥ नर नारी जे गावहिं सुणहि, चतुर दे कानु । ।
भोगवि सुर-नर सुह-फल, पावहि सिवपुर थानु ॥६२॥" कवि भगवतीदास की कविता में आकर्षण है-वह जनसाधारण के मनको मोहनेवाली है और उन्हें अध्यात्म-रसका पान कराती है । काम-शत्रु को जीतने के लिये वह खूब कहते हैं
"जगमहिं जीवनु सपना, मन, मनमथु पर हरिये । लोहु-कोहु-मद-माया, तजि भवसायर तरिये ॥"
(सज्ञानी ढमाल) कवि की दृष्टि में सचा योगी कौन है ? यह भी देखिये