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[हिन्दी जैन साहित्य का परंतु उसमें गुजराती की झलक है और अपभ्रंशशब्दों की अधि. कता है । वह ऐसी साफ नहीं है जैसी उस समय के बनारसीदासजी आदि कवियों की है। कारण, कवि गुजरात और राजपूताने की बोलियों से अधिक परिचित था। वह प्रतिभाशाली जान पड़ता है । कोई कोई पद्य बड़े ही चुभते हुए हैं :
"भलउ हुअउ जइ नीसरी, अंगुलि सप्पि-मुहाहु ।'
ओछे सेती प्रीती, जदि तुइ तदि लाहु ॥९॥" सिन्धुल लौट कर जब राजा मुंज के समीप आया, तब मुंज कपट की हँसी हँसकर उसके गले से लिपट गया। इसको लक्ष्य करके कवि कहता है:
"धूरत राजा मुंज पणि, मिल्लउ उठि गलि लागि । को जाणइ धन दामिनी, जल महिं आउइ आगि ॥१२०॥ घणु वरसइ सीयल सलिल, सोई मिलि हइ विज्नु ।
गरुयह तूसइँ जीवय इ, रूठइँ विणसह बज ॥१२॥" "इस ग्रन्थ की यह बात नोट करने लायक है कि इसमें हिन्दी के दोहों को 'प्राकृतभाषा दोहा' लिखा है। मालूम होता है उस समय हिन्दी उसी तरह प्राकृत कहलाती होगी जिस तरह बम्बई की ओर इस समय मराठी 'प्राकृत' कहलाती है।" (हि जै० इ० पृ० ४६-४७)
श्रीभगवतीदासजी की रचनायें श्री दि० जैन बड़ा मंदिर मैनपुरी के शालभंडार में विराजमान सं० १६८० के लिखे हुये गुटका में लिपिबद्ध हैं। आप प्रसिद्ध कवि भैया भगवतीदासजी से भिन्न और पूर्ववर्ती हैं। सं० १६८० का उपर्युक्त गुटका उन्हीं
१.सर्प के मुंह से