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________________ संक्षिप्त इतिहास] नामक है, जिसे कवि ने सं० १६५२ में रचा था। इसकी एक प्रति सं० १८०९ की लिखी हुई अलीगंज के श्रीशान्तिनाथ दि० जैन मन्दिर के भण्डार में है और एक प्रति मुनि जिनविजयजी के पास है। मुनिजी ने इसे हिन्दी का ग्रन्थ माना है और इसकी रचना अच्छी और ललित बतायी है। वह लिखते हैं कि जान पड़ता है 'माल' एक प्रसिद्ध कवि हो गया है। गुजराती के प्रसिद्ध कवि ऋषभदास ने अपने 'कुमारपालरास' में जिन प्राचीन कवियों का स्मरण किया है, उनमें माल का नाम भी है।" (हि जै-इ-पृ० ४४-४५) निस्सन्देह कवि माल की रचना प्रसादगुणसम्पन्न है। उनका वसन्त ऋतु का वर्णन देखिये "मंजरि मुख सहकारसु, लेउ आयउ जनु पुत्र । जहि सिसिर विधिना दियउ, अब बसन्त मिरि क्षत्र ॥२२॥ वारी वन फूले सकल, कुसुमवाम सहकार । ऋतु बसन्त आगम भयउ, पिक बोले जइकार ॥२३॥ मलय सुगंध पवन बहइ, सीहइ सकमल नीर । लागइ दिवसे सुहामण, चंगइ तनि मनि धीर ॥२४॥ अगर तगर धन अंब, निंब कदंब जंभीरी । सींवल सालई जंबु, अर्जुन खदिर खजूरी ॥२५॥ वकुल ताल हि तालवेत सयनस विजउरी। अक्षप लक्ष अपरोट, वट अंकोल समउरी ॥२६॥ कहइ सीप जनु अंब चढि, पिक बोलती एह । भोगी मिलि क्रीडा करइ, जोवन फल किन लेइ ॥३८॥" दूसरा ग्रन्थ 'भोजप्रबन्ध' भी उक्त मुनिजी के पास है। प्रेमीजी ने उसे देख कर लिखा था कि 'इसकी भाषा प्रौढ़ है,
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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