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________________ ६६ [ हिन्दी चैन साहित्य का करौ जगभूषण भट्टारक पाइ, ताकौ सेवगु ब्रह्म गुलाल, कीजी मध्यदेश रपरी चंदवार, ता समीप कीरतसिंघ तहाँ धुर धरै, वेग त्याग को ध्यानु - अंतरगति आइ । कथा कृपन उर सालु ॥. टापू सुषसार समसरि करें ॥ यह मंडल कीनु गो-धीरु, कुल दीपक उपज्यो महि वीरु । अति उदार कीनु जगदीस, जी जौ कुलकरु कोरि वरीस ॥ (?) मथुरामक्ल भतीजो उरु, धर्मदास कुल कौ सिरमौरु || अति पुनीत सुमानहु वयौ, कलि महुँ सेठि सुदरसनु भयौ ॥ ता उपदेस कथा कवि करी, कवित चौपही सांचै ढरी । ब्रह्म गुलाल गुरु नेकी छाह, पूरी भई जो रषिमाह ॥ सोरह से इकहत्तर जेठ, नुंमीहि दिवस सुमरि परमेठि । कृष्ण पक्ष शुभ शुकर वारु, साहि सलैम छत्र सिर भारु ॥"" 1 इस प्रशस्ति से स्पष्ट है कि कवि गुलालजी भ० जगभूषण के शिष्य थे । वह रपरीं और चंदावर गांवों के पास बसे हुए टापू गांवों में रहते थे । जो आजकल जिला आगरा के अन्तर्गत हैं । वहाँ का राजा कीरतसिंह था, जिसने कोसम ( इलाहाबाद ) का किला जीता था और इस मंडल को गौ रक्षक बनाया था । वहाँ ही धर्मदास के कुल में मथुरामल्लजी रहते थे। जो ब्रह्मचर्य - व्रत पालने में सेठ सुदर्शन के समान थे। कवि ने उन्हीं के उपदेश से यह प्रन्थ संवत् १६७१ में रचा था । कवि एक सिद्धहस्त कलाकार थे । ब्रह्मगुलाल के रचे हुए अन्य ग्रन्थ भी मिलते हैं; किन्तु हमारे देखने में नहीं आए हैं। पं० अचलकीर्ति का रचा हुआ 'विषापहार स्तोत्र भाषा' सं० १९२३ के एक गुटका में लिखा हुआ मिला है। नमूना यह है :
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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