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संक्षिप्त इतिहास]
६५ व्रत पाले तो अपने पापों से छुटकारा पा सकती है। अंधे को दो नयन मिले । क्षयंकरी ने धर्म धारण किया और जिन पूजा करने और साधुओं की भक्ति करने में जीवन बिता दिया । समपरिणामों से शरीर त्याग कर वह स्वर्गों में देवता हुई। बसुपति राजा ने जब मूतिपूजा में शंका की तो आचार्य बोले:
"जिम माला करि लीजै नामु, चित्र नारि देवै जिम वामु । जिम कर दाण चलतु घात, कनक लोह जिम भूषण गात ॥ जिम घट अछर घट को ज्ञानु, इमि देषे प्रतिमा जिन ध्वानु । घट कारण घट की उत्पत्ति, पट कारण पटु उपजै सत्ति ॥ प्रतिमा कारणु पुण्य निमित्त, विनु कारण कारज नहिं मित्त । प्रतिमा रूप परिणवै भापु, दोषादिक नहिं ब्यापै पापु ॥ क्रोध लोभ माया विनु मान, प्रतिमा कारण परिणवै ज्ञान । पूजा करत होइ यह भाउ, दर्शन पाए गलै कपाउ॥"
यह चरित्र उस समय की सामाजिक दशा और धार्मिक विश्वास को प्रगट करने के लिये भी महत्त्व की चीज़ है। सन्त जन और सूफी लोग 'नाम' की रटना माला के आधार से करते थे । जब निर्जीव माला से प्रभु दर्शन हो सकते हैं, तो कोई कारण नहीं कि प्रभु की प्रत्याकृति से उनका भास न हो ? एक ओर मूर्तिपूजा का विरोध था तो दूसरी ओर उसका समर्थन । यह ग्रन्थ ब्रह्मगुलालजी ने जिनेन्द्र की मूर्तिपूजा और मुनियों को आहारदान देने की पुष्टि में रचा था। इसकी प्रशस्ति निम्न प्रकार है:
"सुनहु कथा तुम भव्य महान, जाहि सुनै मन बादै ज्ञान । कृपन जगावन याकौ नांउ, पढ़ गुणे ताकी बलि जाउ ॥