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________________ ६४ [हिन्दी जैन साहित्य का सेठ के हाथ बेचे । सेठ लोभी तो थे ही। उन्होंने पूछा, 'तू इन्हें जहाँ से लाई वह खानि मुझे भी बता दे।' पड़ोसिन रुपयों के लालच में राजी हो गई और सेठजी को चुपके से विमान की खुखाल में बैठा दिया। सेठानियाँ रत्नद्वीप के जिन मंदिरों की वंदना करने गई । सेठ ने वहाँ खूब रत्न बटोरे, परन्तु फिर भो उनकी नीयत न भरी । लोभ तृष्णा को लिये हुये वह चुपके से विमान की खोल में बैठ गये, परंतु उनके पाप का घड़ा भर चुका था । अनहोनी हुई "जलनिधि अंत प्रोहनु फटी, भियौ कोलाहल बहु जन रटौ। फेरि वदनु चितई सुकमाल, बूड़त तिनहिं शरण भई बाल ॥ करि आकर्ष सकल उद्धरे, प्रोहन सहित उदधि तट धरे । पोलो काटु दयौ छुटकाइ, लोभदत्तु सेठि विललाइ ॥ हाइ हाइ करि परयौ मंझार, पेटु भन्यौ पारी जलधार । पोटे ध्यान तजै निज प्राण, लोभदत्तु गए नरक निदान ॥ लछिमी कहाँ ? कहो को पाइ ? लागे वहि कितहू मुकुयाइ । लछिमी तनौ लाभ नहिं लेइ, होते भवन पाइ नहिं देह ॥ ताकी गति यह जानहु त्यान, लोभ दीजि मन तजे परान ॥" सेठानियों को जब सेठ के मरण का दुखद वृत्त ज्ञात हुआ तो उनके शोक का पार न रहा। आखिर वह उनका पति था। पर वे करती क्या ? संतोष धारण किया और अपना सारा जीवन जिनेन्द्र पूजा करने और मुनियों को दान देने में बिता दिया। अन्त में सन्यासमरण करके वे देव हुई । श्रावक धर्म की महत्ता को उन्होंने अपने आदर्श चरित्र से स्पष्ट कर दिया। इस कथा को कहकर वरदत्त मुनि ने बताया कि मल्ली सेठानी का जीव दुर्गति के दुख भुगत कर क्षयंकरी हुआ है। यदि क्षयंकरी श्रावक
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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