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संक्षिप्त इतिहास] लोभी थे। भंडारे का और घर के द्वारे का ताला जकड़कर व्यापार के लिये जाते थे। कवि कहते हैं
"जबहि होई जैवे की वार, जब घर दे जाहिं ठोकि किवार । लोभदत्त घर सेठिनि दोइ, काहिं जनमु सीषि झीषि रोइ ॥ रातो पहिर, ण तातौ बाहि, घर महु परी परी पछिताहिं । जेठी कमला लहुरी लच्छा, तीजै और न घेरी बछा ॥"
किन्तु सन्तोष का फल उन्हें मीठा मिला । एक दिन दो चारण मुनि उनके द्वार पर आ गये, जिनके पुण्य प्रभाव से द्वार खुल गये। सेठानियों ने अपना भाग्य सराहा, पर सेठ के कारण वे असमंजस में पड़ गई । इस समय लच्छा बोली
"लहुरी लच्छा कयौ सुनि माइ, घर आयौ मुनिवरु फिरि आइ । इह पछितायै मिटै न सल्लु, दूजो आजु बगर मह पल्लु ॥ हां ती करौ कि मारौ धाइ, हम नहिं चूक यैसी दाइ । जह औसरु कहि कैसे फेर, मिल्यौ जो जिन अंध बटेर ॥ जो अब करहिं सेठकी कानी, तौ वरत को आवै हानी । मीठे वचन लच्छा के कहैं, कमला के मन सांचे रहैं ॥"
दोनों ने मिलकर मुनियों को माहार दिया। मुनियों ने कृपा करके उन्हें आकाशगामिनी और बंधमोचनी विद्यायें बता दी। अब तो जब सेठ उन्हें किवाड़ों में बंद करके चले जाते तो वह अपनी विद्याओं से काम लेती और मनमानी तीर्थयात्रा करती। एक दिन पड़ोसिन रूठकर आई और चुपके से उनके विमान में बैठ गई । सेठानी सहस्रकूट चैत्यालय की वंदना करने गई । पड़ोसिन ने वहाँ खूब माणिक-मोती इकट्ठे किये और उनके साथ वापस घर आ गई । संयोग की बात पड़ोसिन ने रत्न लोभदत्त