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[ हिन्दी जैन साहित्य का
मल्लि थी । उज्जैन के राजा पद्मनाथ ने आष्टाह्निक पर्व का उत्सव सार्वजनिक रूप में मनाया । धवल सेठ भी उसमें सम्मिलित हुये । सेठानी मल्लि कृपण थी । उसे यह न रुचा । जब उसे यह समाचार मालूम हुआ तो वह इस प्रकार सोचने लगी
"मल्ली सुनि मन चिंतइ आपु, किरपनता करि विठवै पापु । सेठ वचन मल्ली के कान, मनहु कठिन लगे उर बान ॥ पुरुष न जानै घर की रीति, घरु घरनी बिनु जाइ विनीत । इनकै कहत लागिये आजु, आगे मोहि बहुतु है काजु ॥ ऐसा देव परम जो मोहि, तौं जह घर चौपटु सो होइ । कीजै सो निब है सो ठौर, आजु परचि का खैहें भोर ॥ ऊंचौ करि करु दीजै दानु, जौर घटे काहू को मानु । सो फिरि माई चेरी होइ, जह दुषु करै कौनु घरु पोइ ॥ जती व्रती सौ गहीये मौनु, बार बार दै गिधवै कौनु ।”
किन्तु मल्ली सेठजी की आज्ञा को टाल न सकी । उसे पूजा के लिये सामग्री और पकवान बनाना पड़ा, परंतु उसने बड़ा सड़ा गला सामान जुटाया । जब सेठ मुनि आहार दें तो वहाँ उसने शुद्धाशुद्धि का विवेक न रखा बल्कि मुनियों के मलिन शरीर को देखकर घृणा की और अपने पति से निरंतर लड़ती रही। परिणामत: वह कोदिन हुई और नरक के दुख भोगने लगी । उधर वरदत्त मुनि ने एक अन्तर कथा कहकर यह निर्देश किया कि स्त्रियाँ ही कृपण नहीं होती, पुरुष भी कंजूस होते हैं। उन्होंने बताया कि कुंडल नगर में लोभदत्त सेठ रहते थे । कमला और लच्छा उनकी उदारमना स्त्रियाँ थीं । सौत थीं, पर कभी लड़तीं न थी। धर्म कर्म करने को सदा तत्पर रहती थीं। सेठजी महा