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________________ [हिन्दी जैन साहित्य का . भणी कथा मन में धरि हर्ष, सोलह से सोलह शुभ वर्ष । राति वसंत मास वेशाख, नवमी सनि अंधारे पाप ॥७७॥" पं० नाथूरामजी प्रेमीजी ने 'ब्रह्म रायमल्ल' को ही 'पांडे रायमल्ल' समझा है। इसका कारण यही हो सकता है कि उनके सन्मुख 'हणुमंत चरित्र' नहीं था। इस चरित्र में उन्होंने अपने को कहीं भी 'पांडे' नहीं लिखा है । सोलहवीं शताब्दि में हुये 'पिंगल' शास्त्र के रचयिता कविवर रायमल्लजी पांडे कहलाते थे और वह कविवर बनारसीदासजी से पूर्ववर्ती विद्वान् हैं। अतः कविवर बनारसीदासजी ने इन्हीं के लिये यह लिखा होगा कि "पांडे रायमल्लजी समयसार नाटक के मर्मज्ञ थे। उन्होंने समयसार की बालबोधिनी भाषा टीका बनाई जिसके कारण समयसार का बोध घर घर फैल गया।" समयसार सदृश आध्यात्मिक ग्रन्थ का बोध सर्वसाधारण में फैलना उस समय के वातावरण को वेदान्ती ज्ञान से प्रभावान्वित प्रकट करता है । सन्त और सूफी कवियों ने वेदान्त को आगे बढ़ाया था, यह हम पहले लिख चुके हैं। ____बाबा दुलीचंदजी की 'हि. जै० ग्रन्थ सूची' में इनके द्वारा सं० १६६३ में रचे गये "भविष्यदत्त चरित्र" का भी उल्लेख हैं। बाबू ज्ञानचंद्रजी ने भी अपनी 'दि० जैन भाषा ग्रंथ नामावली' (पृ०१) में इन दोनों ग्रन्थों को ब्र० रायमल्लजी कृत अङ्कित किया है। प्रेमीजी ने अपने 'इतिहास' (पृ०५०) में एक अन्य ब्र रायमल्लजी का उल्लेख किया है, जो सकलचन्द्र भट्टारक के शिष्य थे और हूमड़ जाति के थे। उन्होंने सं० १६६७ में 'भक्तामरकथा' की रचना की थी। 'सीताचरित्र' भी शायद इन्हीं की रचना थी।
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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