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संक्षिप्त इतिहास कल के समान ही उस समय की परिस्थिति थी । आज यद्यपि खड़ी बोली में पद्य रचना करने की शैली प्रचलित है। परन्तु ब्रजभाषा में कविता करने वालों का सर्वथा अभाव नहीं है। इसी तरह उस समय यद्यपि संस्कृत हिन्दी को प्रधान पद प्राप्त था, परन्तु पुरानी अपभ्रंश-हिन्दी में लिखने की शैली बिल्कुल बन्द नहीं होगई थी। इसके लिये ब्रह्मचारी रायमल्ल की रचनाओं को ही देखिये। . ___ ब्रह्म रायमल्लजी मूलसंघ शारदगच्छ के आचार्य रमकीर्ति के पट्टधर मुनि अनन्तकीर्ति के शिष्य थे। उन्होंने 'हनुमन्त चरित्र' की रचना वि० सं० १६१६ में की थी, जिसकी एक प्रति हमें दिल्ली के सेठ के कूचा के जैन मंदिर के भंडार से देखने को मिलो है। ब्रह्म० रायमल्लजी की कविता साधारण और भाषा अपभ्रंश शब्दों से रिक्त नहीं है। उदाहरण देखिये
"कूकू चंदन धसिवा धरणी, मांशि कपूर मेलि अति घणी। जिणवर चरण पूजा करी, अवर जन्म की थाली धरी ॥४॥ 'राय' भोग केतकी सुवास, सो भाविया वंदऊ जास । जिणवर आणु धरै पषालि, जाणि मुकति सिर बंधि पालि ॥३२॥
दिन गत भयो आथयो भाण, पंषी सन्द करै असमान । मित्त सहित पवनंजै राय, मंदिर ऊपर बैठो जाय ॥ ४४ ॥ देषे पंषी सरोवर तीर, करें शन्द अति गहर गहीर । दसै दिसा मुष कालो भयो, चकहा चकिही अंतर लयो ॥ ४४ ॥
तासु सीष जिण चरणा लीण, ब्रह्म रायमल मति करि हीण । हंणू कथा कीयो एग्गास, क्रियावंत मुनीसर दास ॥६॥