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________________ [हिन्दी चैन साहित्य का इसलिए :"जा उत्तम कुलि उप्पण्ण नारि, निम्मलु जिणभासिया धम्म धारि । सा स्यणिहि असणु न भायरेइ, आहारदाणु भावेण देइ ॥" कवि कहते हैं कि जो इस विधि को सुनेगा और पालन करेगा वह देवगति और मोक्ष का सुख प्राप्त करेगा। "एहु अणथमिउ जो पढइ पढावइ, सो णरुणारि ‘सुरालउ पावइ । जो अखिलिउ अणथमिउ करेसइ सो णिव्वाण णयरि पयसेसइ ॥" अन्त इन छन्दों के साथ किया गया है :"वील्हा जंडू तणाएं जाएं, गुरुभतिए सरसइहिं पसाएं ॥ अयरबालघरवसे, उप्पण्णइ महहरियंदेण। भतिए जिणु पणवेति, पयडिउ पद्धपिया छंदेण ॥१६॥" 'विद्याभूषण सूरिने-'भविष्यदत्तरास' रचा है जो श्री दि० जैन पंचायती मंदिर दिल्ली में है। इनकी एक अन्य रचना वसन्तनेमि का फाग है। भ० प्रतापकीर्ति का रचा हुआ 'श्रावकाचार रास' सं० (सं० १५७४) भी उक्त मंदिर के भंडार में है। सत्रहवीं शताब्दि के आरंभ काल में ही श्री रायमल्लजी ने अपनी निम्नलिखित रचनायें रची थीं। उनके पश्चात् इस शताब्दि में और अनेक जैन कवियों के अस्तित्व का पता चलता है। निस्सन्देह यह शताब्दि मध्यकालीन हिन्दी जैन साहित्य के उत्कर्ष में अपनी विशेषता रखती है। कविवर बनारसीदासजी सदृश महान कवि इसी शताब्दि में हुये हैं। उन्होंने परिष्कृत हिन्दी में अपनी रचनायें रची थीं, किन्तु अभी तक ऐसे कवि भी मौजूद थे जो अपभ्रंश मिभित हिन्दी में पद्य रचना रचते थे। ठीक आज
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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