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संक्षिप्त इतिहास ]
"भाइ जिगिंदु रिसहु पणवेष्पिणु, चउवीसह कुसुमंजलि देष्पिणु । वज्रमाणु जिणु पर्णाविवि भाविं, कलमलु कलुसवि वछिउपावें ।”
इस सन्धि में वर्द्धमान प्रभू का सौधर्मेन्द्र द्वारा स्नानोत्सव का वर्णन करके दूसरी सन्धि में उनकी स्तुति की है। तीसरे में मनुष्य भव की दुर्लभता बताकर धर्म पालने का उपदेश दिया है।
" दुलहउ पावेष्पिणु मणुय जम्मु, जिणनाहें देसिउ मुणिवि धम्मु । महु मज्ज मंसु नउ अहिलसेइ, पंचुंवर न कयाइ विगसेह ।”
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चौथी सन्धि में कवि निशि भोजन निषेध कथन की प्रतिज्ञा करता है और आगे की सन्धियों में निशि भोजन के दोषों को विविध प्रकार से हृदयङ्गम कराता है । वह लिखता है:
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" स्यणिहिं भुंजंतहं दोसु होइ, एरिसु मुणिवर जंपंति लोइ । जहिं भमहिं भूयरक्वस रमंति, जहिं विंतर पेयहं संचरंति । जहिं दिट्टि णय सरह अंधु जेम, तिहिं गास सुद्धि भणु होइ केम ? किमि कीड पयंगइ झिंगुराई, पिप्पीलड् डंसह मछराई । खज्जूरइ कण्णसलाइयाइ, अवरहं जीवह जे बहु सयाहूं । अनाणी निसि भुंजंत एण, पसु सरसु धरिउ अप्पाणु तेण । जं बालिवि दीवउ, करि उज्जोवउ, अहिउ जीउ संभवइ परा । भमराइ पयंगई, बहुविह भंगई, मंडिय दीसह जित्थु धरा ॥ ५ ॥ "
इसी रीति से कवि ने निशि भोजन की भयंकरता का निर्देश किया है और स्त्रियों को खासकर सम्बोधा है कि उन्हें रात्रि में अशन नहीं करना चाहिये ।
"ना तिय रयणिहिं भोयणु करेइ, सा अप्पट बहु पावह भरेइ । उप्पज्जइ दालिद्दिय घरंमि, अहवा दोहग्गिणि जम्मि जम्मि ।