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[हिन्दी जैन साहित्य का __मुनि महानन्दिदेव ने 'आनन्दातिलक' नामक रचना साधुओं
और मुमुक्षुओं को सम्बोधन के लिये आध्यात्मिक सुभाषित नीति रूप में गोपाल साह के लिए रची थी। नमूना देखिये :
"चिदानंदु सानंदु जिणु, सयल सरीरह सोइ । महानंदि सो पूजियइ, आनंदाग्गतमंडलु थिरु होइ ॥१॥ अप्यु निरंजणु अप्पु सिउ, अप्पा परमानंदु । मूद कुदेवु न पूजियइ, आनंदागुर विणु भूलेउ अंधु ॥ १ ॥ अठसटि तीरथ परिभमइ, मूढा मरहिं भमंतु । अप्पा बिंदु न जाणही, आनंदा घट महि देउ भणंतु ॥ ३ ॥ भिंतरि भारिउ पापमल, मूढा करहिं सनाणु । जे मल लागा चित्तमहि, आनंदा ते किम जाहि सनानि ॥ ४ ॥ ध्यान सरोवरु अमिय नलु, मुणिवरु करहिं सनाणु । अटु कम्ममल धोवही, आनंदा नियउबहु निव्वाणु ॥ ५॥ x x x
x सद गुरु उवयारे ने याउ, हउ भणेवि महानंदि देउ । सिव पुरु जाणिउ णाणियह, आनंदाकरमि चिदानंदु देउ ॥४२॥ कहीं कहीं तो रचना बड़ी ही सुन्दर और मनोहर है।
पण्डित श्री हरिचन्द अग्रवाल वंश में उत्पन्न हुये थे। उन्होंने 'पद्धड़ी छन्द' में 'अनस्तमित व्रत सन्धि' रची थी, जिसमें रात्रि भोजन का निषेध मनोहर रीति से किया है। कवि ने इसकी रचना में किसी कथानक का सहारा नहीं लिया है। बल्कि यह एक स्वतन्त्र रचना है । सोलह सन्धियों में कवि ने इसे पूरा किया है। प्रत्येक सन्धि के अन्त में एक 'घत्ता' छन्द है। उसकी भाषा अलबत्ता कहीं कहीं पर पूर्णतया प्राकृत से जा मिली है वैसे उसे हम प्राचीन हिन्दी ही मानते हैं । उदाहरण देखिये -