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________________ ८४ [हिन्दी जैन साहित्य का हैं। पहली रचना में भविष्यदत्त का चरित्र दिया गया है। भाषा दोनों ही रचनाओं की अपभ्रंश प्राकृत मिश्रित प्राचीन हिन्दी है। उदाहरण देखिये : "पणविवि पंच महागुरु, सारद धरिवि मणे । उदयचंदु मुणि वंदिवि, सुमरिवि वाल मुणे । विणयचंदु फलु अरकड, णिमर पंचमिहि । णिसुणहु धम्म कहाणउ, कहिउ जिणागमिहिं ॥ तिहुयणगिरि तलहट्टी यहु रासउ रयउ । माथुर संघहं मुणिवर विणइचंदि कहिउ ।। भवियहु पढ़हु पढ़ावहु दुरियहु देहु जले । माणु म करहु म रूसहु, मणु खंचहु अचलो ॥ जेण भणति भडारा पंचमियं वय हो। अम्हहि ते दरिसाविय अविचलु सिद्धिपहो ॥" दूसरी रचना में चौबीस तीर्थङ्करों के पञ्चकल्याणकों की तिथियों का व्याख्यान किया गया है । उदाहरण देखिये : "सिद्धि सुहकर सिद्धिपहु, पणविवि ति जयपयासण केवल । सिद्धिहिं कारण धुणमिहउ, सयलवि जिणकल्लाणइ नियमल ॥ सिद्धि० ॥ पतम परिक दुइजहिं आसाढहिं, रिसह गब्भुतहि उत्तरसाढहिं। अंधारी छहहिं तहिमि, वंदमि बासुपूज गम्भुच्छउ । विमलु सुसिबउ अहमिहि, इसमिहिं नमिजिण जम्मणु तहतउ॥ सिद्धि० ॥ एयभत्तु एकुजि कल्लाणउ, विहि निश्वियडि अहवइ गहाणउ । तिहु आयंबिलु जिणु भणइ, चउहु होइ उपवास गिहत्यहं ॥ अहवा सपलह खवण विहि, विणयचंदि मुणि कहिउ समस्यहं ॥ सिद्धि ।
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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