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________________ संक्षिप्त इतिहास] अन्त के छन्द इस प्रकार हैं सीतल जिन जन्मइ सुपवित्र, भहिल पुरवर छह पवित्र । तिहां आया गुरुसाथि, केवल कीधउ हाथि ॥१३॥ "श्री उवझायएस) गछ जयवंता, पाठक देवकलोल महिमावंता। दिनिदिनि तेज दीपंता, अतिवर गुण विहसंता ॥ नवरस नवतत्त्व वाणी बषाणइ, सकल शास्त्र सिद्धांतह जाणइ ॥१५॥ तास सीसदेग कलसिइं हरसिई, पनरह सइ गुणहत्तरि बरसिहं । रचिउ सीलप्रबंध, ए चरित रिषिदत्ता केरउ । सील तणोउ नापन उनवेरउ छइ प्रगट संबंध ॥९६॥" इससे प्रगट है कि इस ग्रन्थ को पाठक देवकलोल के शिष्य देवकलशजी ने संवत् १५६९ में रचा था, जिनका सम्बन्ध श्वेताम्बर संघ के श्री 'उवझाएस' (?) गच्छ से था। ___ बाबू ज्ञानचन्द्रजी ने अपनी “दिगम्बर जैन भाषा ग्रन्थ नामावली" (पृ० १) में पं० धर्मदासजी कृत "श्रावकाचार भाषा छन्द बद्ध" का भी उल्लेख किया है, जो वि० सं० १५७८ में रचा गया था। जयपुर में बाबा दुलोचन्दजी के 'शास्त्र भण्डार' में इसकी एक प्रति मौजूद थी। श्री विनयचन्द्रजी कृत 'चूनड़ी' ग्रन्थ का उल्लेख पहले किया जा चुका है। उपरान्त हमें श्रीयुत भाई पन्नालालजी अग्रवाल दिल्ली के विशेष अनुग्रह से दिल्ली के पंचायती मन्दिर ( मसजिद खजूर ) के भण्डार की एक प्राचीन पोथी देखने को मिली है। उसमें श्री नियमचन्दजी की (१) निर्झर पंचमी विधान कथा और (२) कल्याणकविधिरास नामक दो रचनायें ओर दी हु
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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