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[हिन्दी जैन साहित्य का हिन्दी का एक पद्य भी देखिये :
"जिनके गृहहेम महावन है तिनको वसुधा हय हेम दिए; जिनकी तनजेव तरातन है तिनके घरते दरबार लिए। सुर नंदन भारहमल्ल बली, कलि विक्रम ज्यौं सक बंधविए,
जस काज गरीबनिवाज सवे सिरिमाल निवाजि निहाल किए ॥" 'कलि विक्रम ज्यों शक बंधविए' चरण इस बात का द्योतक है कि नृपति भारामल्ल ने किसी युद्ध में यवनों को बन्दी बना लिया था। सारांश यह कि कवि राजमल्ल जी का यह 'पिंगल शास्त्र' उस समय के हिन्दी साहित्य का अनूठा रत्न है, जिस पर आज भी गर्व किया जा सकता है।
श्री देवकलशकृत ऋषिदत्ताचरित्र इस शताब्दि की एक सुन्दर रचना है । सिंहरथ राजा की रानी ऋषिदत्ता थी। उन्होंने शीलधर्म का दृढ़तापूर्वक पालन किया था। अन्त में दोनों ने साधु-दीक्षा धारण की और संयम पाला । वे दोनों भद्दलपुर नामक विशाल नगरी में आये । जहाँ शीतलनाथ भगवान का जन्म हुआ था। वहाँ से वह सिद्ध हुये। इसकी भाषा में गुजराती शब्द भी मिलते हैं, जिससे इसके रचयिता गुजरात देश के. निवासी प्रतीत होते हैं। इसकी एक प्राचीन प्रति श्री दि० जैनमन्दिर सेठ के कूँचा दिल्ली के मन्दिर में विराजमान है। रचना का नमूना देखिये
"कणकतणी परि तनु अभिराम, तिणि कनकरथ दीधउ नाम । गुणियण संघ धणूं तसु मगइ, निरगुण दीठा मन कमकमइ ॥१७॥
सूरवीर समरांगणि धीर, दाता जलनिधि जिम गंभीर । • बोला सुललित मधुरी बाणि, सहुको तिणि रीमाइ अभिराम ॥१८॥