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प्राचीन प्राचार्य परम्परा
भूखे-प्यासें हीं लोटतें । उनके मोही भक्त थोड़े विचलित होते पर वे नहीं । वे तो अपनी प्रतिज्ञा का पालन करके ही रहते ।
माघ का महीना श्राकर, प्रतिवर्ष मुझसे माघ मुनि की कथा कह जाता है और उनकी पवित्र स्मृति हृदय में पुनः सजीव कर जाता है और तब ही मैं मन्दबुद्धि विचार नहीं पाता - 'ग्राज मेरे समाज में माघ मुनि कहाँ ?'
(३) जब देव वैद्य बन कर ग्राया
जव सौधर्म स्वर्ग के इन्द्र ने भी सनत्कुमार मुनिराज के चारित्र की प्रशंसा की तो मदनकेतु देव ने उनकी परीक्षा लेने की ठानी। दूसरे ही क्षरण, वह उस वन में आा गया, जहाँ. सनत्कुमार मुनिराज आत्मसाधना कर रहे थे । "मैं वह वैद्य हूं, जो भयंकर से भयंकर और असाध्य से असाध्य रोगों को क्षण भर में दूर कर सकता हूं।" मदन केतु ने जोर जोर से चिल्लाते हुये कहा । सनत्कुमार मुनिराज ने उसे बुला लिया और कहा - "बड़ा ग्रच्छा हुआ, जो अनायास आप इधर श्री निकले, मुझ प्यासे को तो सरोवर ही मिल गया" उन्होंने अपनी वात को बढ़ाते हुये कहा - ' मैं एक भयंकर रोग से पीड़ित हूं, अगर आप उसे दूर कर देंगे तो मैं जन्म जन्मान्तर तक भी उपकार नहीं. भूलूंगा ।"
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Ref:
1. "आप विश्वास रखिये" देव ने कहा- "मैं प्रापके सुन्दर शरीर को गलाने वाले कुष्ट रोग' को पलक मारते ही दूर कर दूंगा। सिर्फ आपकी आज्ञा की देर है ।"
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"नहीं ! नहीं ! ! आप नहीं समझे । कुष्ट रोग का तो मुझे कुछ भी कष्ट नहीं है । कष्ट तो मुझे संसार में परिभ्रमण का है । अगर आप मेरा यह रोग दूर कर दें तो मैं आपको तीर्थकर ही समझ. लू और श्रद्धा से नमस्कार करलू ।"
"नहीं ! मुनिराज !!" मदन केतु ने लज्जा से सिर झुकाकर कहा - "इस जन्म-जरामरण जैसे विषम रोग की दवा मेरे पास नहीं है, वह तो आप जैसे निरीह मुनियों के ही पास है ।"
(४) जब चारों ओर से तलवारें उठीं. 1
"तुम वाद-विवाद में विजयी हुये । यह तो अच्छी बात है पर तुम्हें अधर्मात्मा मन्त्रियों से.. तत्वचचों में उलझता नहीं था । अब भी अगर तुम संघ की सुरक्षा चाहो तो उसी स्थान पर जाकरश्रात्म साधना करो, जहाँ मन्त्रियों से तुम्हारा विवाद हुआ था ।" आचार्य श्रकम्पन ने श्रुतसागर से कहा । "जैसी आचार्य की आज्ञा ।" श्रुतसागर ने बिना नुक्ता चीनी किये कहा - " मैं भले रहूं या न रहूं पर मेरा संघ अवश्य सुरक्षित रहे ।"