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श्रुतसागर, अपने विवाद के स्थल पर आकर साधना करते लगे। धीरे धीरे दिन बीता श्रीर रात आगई । सन्ध्या की सुन्दरी ने तारे बिखेर दिये ।
प्राचीन आचार्य परम्परा'
"आज जिस नंगे साधु ने राजा के सम्मुख अपना अपमान किया था, उसे संघ सहित मारकर अपने अपमान का बदला न लिया तो अपना मन्त्रित्वा निष्फल है ।" चारों मन्त्रियों नेः विचार किया ।
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वलि, वृहस्पति, प्रहलाद और नमुचि - सुदृढ़ सुमेरु सा विचार कर हाथों में चमचमाती तलवारें लेकर निकल पड़े और वहीं श्रा गये, जहाँ श्रुतसागर ध्यान कर रहे थे। एक क्षण ठहर कर उन्होंने सोचा - " असली शत्रु तो यही है, पहले इसे ही समाप्त करें । इसके संघ वालों को फ़िर देखा जायेगा ।"
चारों मन्त्रियों ने एक साथ श्रुतसागर पर प्रहार करना चाहा। पर यह क्या ? उनके तलवार वाले हाथ ज्यों के त्यों उठे के उठे ही रह गये | अब वे आगे-पीछे भी नहीं होते थे । मन्त्री; इस अप्रत्याशित घटना को देखकर विस्मित थे ।
धीरे धीरे रात भी बीती । प्रातःकाल होते ही सूर्य के प्रकाश सो यह खबर भी नगर में फैल गई कि चारों मन्त्रियों ने मुनि को मारने की कोशिश की । श्रीवर्मा ने भी ग्राकर देखा औौर. - चारों ही मन्त्रियों को नगर से बाहर निकाल दिया ।
लोगों ने कहा - "यह है सत्ता का सदुपयोग और धर्म का फल पुण्य ।"
(५) जव छुरी द्वारा कूख ही चीरी जाने लगी ।
जब मुनि नागदत्त वन में चलते चलते चोरों के अड्डे के पास पहुंच गये तो वे घबड़ाये । उन्हें पकड़कर वे अपने प्रमुख सूरदत्त के समीप ले गये । प्रमुख ने कहा - "इन्हें छोड़ दो, इनसे कुछ भी अपना अनिष्ट नहीं होगा ।"
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थोड़ी देर वाद - नागदत्ता ( मुनि की मां ) अपनी बेटी सहित आई । वह कौशाम्बी जाकर, जिनदत्त के सुपुत्र धनपाल से अपनी बेटी का विवाह करने जा रही थी; अतएव उसके पास ' काफी वस्त्राभूषण भी थे । अपनी जान और माल की सुरक्षा की दृष्टि से वह कुछ रुकी। उसने
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मुनि नागदत्त को प्रणाम करने के बाद पूछा - "प्रभो ! आगे का मार्ग स्वच्छ और सुरक्षित.. तो है ?" :