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प्राचीन प्राचार्य परम्परा
[४३ :- .. · समन्तभद्र ने समझाया कि मेरा नमस्कार सहन करने की शक्ति आपके शिवजी में नहीं है । शिवकोटि ने कहा-'तुम तो शिव को नमस्कार करो, भले मूर्ति रहे या न रहे।'
दूसरे दिन, शासन देवी अम्बिका की प्रेरणा से समन्तभद्र ने स्वयंभुवा भूत हितेन भूतले....."से प्रारंभ कर चौबीसों तीर्थकरों की प्रार्थना की। जैसे ही उन्होंने आठवें तीर्थकर चन्द्रप्रभु भगवान को प्रणाम करने के लिये सिर झुकाया तो शिवजी की मूत्ति फटी और चन्द्रप्रभु भगवान की प्रतिमा सबने देखी।
शिवकोटि ने भी समन्तभद्र का वास्तविक परिचय और उनकी विद्वत्ता जान ली तो अपनी लज्जा और ग्लानि मिटाने के लिये उनकी शिष्यता स्वीकार कर ली । कहा जाता है कि बहुत दिनों तक काशी में फटे महादेव का मन्दिर प्रसिद्ध रहा है ।
(२) जब एक मुनि गृहस्थ वना
"प्रस्तुत प्रश्न का उत्तर तो बखूबी एक ही व्यक्ति दे सकता है और वह है माघ ।" एक प्राचार्य ने मर्माहत होकर कहा-"पर अब तो उसे भी मुनि से गृहस्थ बने ग्यारह वर्ष हो गये, इसलिये शायद कहीं वह भी न भूल गया हो।" "आचार्य श्री दुखी न हों। हम लोग माघ के पास जाकर ही अपनी शंका का समाधान कर लेंगे। वे मुनि से गृहस्थ भले बन गये हों पर उनकी बुद्धि और विवेक का तो हमें अभी भी वड़ा भरोसा है।"
यह कहकर जव जिज्ञासु शिक्षार्थी माघ के पास आये तब वे अपने परिवार सहित गोत्र कर्म के प्रतिनिधि कुम्भकार बने घड़ों का निर्माण कर रहे थे। जिज्ञासुओं ने माघ के सम्मुख अपनी शंका रखी और माघ ने वह समाधान दिया कि वे भी निरुत्तर और सहमत हो गये।
जिज्ञासु चले गये और माघ के हृदय में हलचल कर गये । माघ ने विचारा-"कहां तो लोग मुझे आज भी माघ मुनि के रूप में स्मरण करते हैं और कहाँ मैं माघ मुनि पथ-पद-भ्रष्ट होकर माघ गृहस्थ बन बैठा हूं। फिर मोह की जंजीर बांधे-संसार के उसी जाल में फंस गया हूं जिससे निकलने के लिये मनमार मुनि बना था, जिनदीक्षा ली थी, अब तो लगभग ग्यारह वर्ष गृहस्थ बने हो गये..."खैर, अब मैं अपनी भूल को ऐसा सुधारूंगा कि लोग युग युगों तक मुझे न भुला सकेंगे।
.. माघ फिर मुनि हुये । तय किया, जब ग्यारह गृहस्थ मुनि बना लूगा तब ही आहार ग्रहण करूंगा । जब तक वे अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार ग्यारह गृहस्थों को मुनि न बना लेते तब तक .