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मुनियों का जीवन
श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन 'सरोज' जावरा
मुनियों के आदर्श जीवन के विषय में, यदि हम पंडित प्रवर दौलतरामजी से परामर्श चाहें तो वे अपनी अमरकृति 'छहढ़ाला' से उद्धरण प्रस्तुत कर कहेंगे
"अर्घावतारन असिप्रहारन में सदा समता धरन।" इससे यह तो सहज ही ज्ञात किया जा सकता है कि मुनि जन समभाव के साधक होते हैं। वे वाहरी-भीतरी आडम्बरों या परिग्रहों से रहित निर्ग्रन्थ होते हैं। मुनियों के उदात्त जीवन के उत्कृष्ट शब्द चित्र प्रस्तुत करने वाली अनेकों कहानियाँ जैन वाङमय में पढ़ने के लिये मिलती हैं। . उनमें से कुछ को एक क्षीण झलक देने का प्रयत्न आगे को लघु कथाओं में होगा; जिससे जिज्ञासु जानेंगे कि मुनि मान-अपमान से परे होते हैं और अध्ययन के इच्छुक समझेंगे कि जिनवाणी का मूलाधार भी मुनि ( अर्हत) ही हैं।
(१) जव चौवेजी छब्वेजी वनने गये।
बढ़ते हुये भस्मक रोग को देखकर और प्रसव के उपरान्त विकल नागिनी सी क्षुधा को . बढ़ते हुये देखकर समन्तभद्र ने अपने गुरुदेव से कहां-"अव तो आप मुझे समाधिमरण के लिये आज्ञा दीजिये । धर्म-रहित जीवन मुझे प्रिय नहीं लगता और मुनियों सा क्षुधा परीपह जीतना अव संभव नहीं रहा।" "सो तो ठीक है।" प्राचार्य वोले-"तुम्हारे द्वारा निकट भविष्य में अतीव धर्म प्रभावना होगी। अतएव मैं सल्लेखना के लिये स्वीकृति नहीं दूंगा । पर तुम किसी भी प्रकार अपने रोग का दमन करो, यही मुझे इष्ट है कि जैन धर्म आगे बढ़े।".
समन्तभद्र ने गुरुदेव का आदेश शिरोधार्य किया । वे कांची से पुण्ढ़ और दशपुर होते हुये वाराणसी में आ गये । वहाँ के राजा शिवकोटि को प्रभावित करके, पक्के शैव प्रमाणित होकर, . शिवजी के स्थान में स्वयं ही भोग लगाकर भस्मक व्याधि का निवारण करने लगे । पर जब एक दिन कपट की कलई खुल ही गई तो शिवकोटि ने क्रोधित होकर शिवजी को नमस्कार करने के लिये कहा।