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प्राचीन प्राचार्य परम्परा धरोहर रही है, पर्यटन देश के वर्तमान उद्योगों में प्रमुख है । जैन मतानुयायी तीर्थयात्रा के रूप में इसमें महत्वपूर्ण योगदान देते रहे हैं । भगवान बाहुबली महामस्तकाभिषेक के साथ ही वहां लगभग ५० मुनिवरों का एकत्र होना इस समय की महत्वपूर्ण घटना थी और लगभग १० लाख लोगों ने इस अवसर पर तीर्थयात्रा की या पर्यटन करके इस उद्योग को बहुत सहायता दी । जहाँ भी कोई जैन मुनि पहुंचता है या चातुर्मास करता है हजारों की संख्या में लोग वहां पहुंचते ही रहते हैं जिससे हर वर्ग को लाभ होता है । अपने पैदल विहार द्वारा तथा साथ में चातुर्विध संघ के साथ रहने से उत्तर से दक्षिण, पूर्व से पश्चिम तक देश को एक सूत्र में बांधने, एक दूसरे की संस्कृति से परिचित करने विभिन्न भाषाओं का विकास करने में इन प्राचार्यो के माध्यम से महत्वपूर्ण कार्य हुआ है। नैतिकता व सदाचार को प्रोत्साहन :
मुनिवरों ने अपने धर्मोपदेश द्वारा मानव मात्र को नैतिकता, सदाचार, चारित्र, तप, त्याग, सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य, प्रचौर्य का उपदेश देते हुये भारतीय जन-जीवन में उत्थान का महत्वपूर्ण कार्य किया । जो व्यक्ति वास्तव में इन गुरुओं के समीप जाता है उनका जीवन निश्चय ही बदल जाता है । सप्त व्यसनों के त्याग द्वारा मद्यपान, मांस सेवन, व्यभिचार आदि पर बड़ा ही, प्रभावी अंकुश जैनाचार्यों ने लगाया । पैदल विहार के कारण अधिकाधिक लोगों से संपर्क होने से बहुत लोगों पर इनका प्रभाव पड़ता है । "बहुजन हिताय बहुजन सुखाय" का चरितार्थ दिगम्बर मुनिवरों द्वारा ही हुआ है। साहित्य क्षेत्र में:
साहित्य क्षेत्र में तो जैनाचार्यों ने महत् कार्य न केवल स्वयं ही किया अपितु इनके सान्निध्य में भी बहुत साहित्य रचा गया । यह गोष्ठी का अलग विषय है ही अतः अन्य विद्वद्जन इस पर प्रकाश डालेंगे। अपरिग्रह व समाजवाद :
जैनधर्म में परिग्रह को पापों में गिना गया है । मुनि के लिये महाव्रत व गृहस्थ के लिये अणुव्रत के रूप में इसका उपदेश देते हुये प्रत्येक गृहस्थ को अपने परिग्रह की सीमा निर्धारित करने का उपदेश है "परिग्रह परिमाण व्रत" से । अगर वास्तव में व्यक्ति इसे अंगीकार करे तो आज जिन विभिन्न वादों-समाजवाद, लेनिनवाद, मार्क्सवाद आदि का उद्देश्य इसी एक अपरिग्रह से ही पूरा हो सकता है । मुनिवर समस्त परिग्रह को त्याग कर दिखा देते हैं कि इनका त्याग करना भी सरल है फिर परिमाण करने में क्यों डरते हो।