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प्राचार्य जिनसेन प्राचार्यों में एक नाम जिनसेन का भी है आपका कालमान वी०नि० १३६४ ( वि० सं० ८९४) का है।
प्राचार्य जिनसेन वीरसेन के सुयोग्य शिष्य एवं सफल उत्तराधिकारी थे। वे सिद्धान्तों के प्रकृष्ट ज्ञाता तथा कविमेधा से सम्पन्न थे । कर्णवेध संस्कार होने से पूर्व ही उन्होंने मुनिधर्म स्वीकार कर लिया था। सरस्वती की उन पर अपार कृपा थी । विनय-नम्रता के गुणों से उनकी विद्या विशेष रूप से शोभायमान थी। गुणभद्र की दृष्टि में हिमालय से गंगा, उदयाचल से भास्कर की भाँति वीरसेन से जिनसेन का उदय हुवा था।
आचार्य वीरसेन की प्रारम्भ की हुई जय धवला टीका कार्य को प्राचार्य जिनसेन ने पूर्ण किया था। इस ग्रन्थ में साठ हजार श्लोक परिमारण स्वरूप इस ग्रन्थ का महत्वपूर्ण स्थान है । प्राचार्य वीरसेन ने इस ग्रन्थ के वीस हजार श्लोक रचे अवशिष्ट चालीस हजार श्लोकों की रचना प्राचार्य जिनसेन ने की।
मेघदूत काव्य के आधार पर 'मंदाक्रांतावृत' में आचार्य जिनसेन ने पार्वाभ्युदय काव्य की रचना की । यह संस्कृत में निबद्ध उत्तम खण्डकाव्य है।
प्राचार्य जिनसेन की ऐतिहासिक रचना महापुराण नामक ग्रन्थ है । इस ग्रन्थ का प्रारम्भ प्राचार्य जिनसेन ने किया पर वे इसे पूर्ण नहीं कर पाए। अपने गुरु वीरसेन की भाँति उनका स्वर्गवास रचना पूर्ण होने से पहले ही हो गया था। उनकी अवशिष्ट रचना को शिष्य गुणभद्र ने पूर्ण किया। इस महापुराण के दो भाग हैं प्रादिपुराण एवं उत्तरपुराण। श्रादि पुराण में १०३८ श्लोकों के कर्ता आचार्य जिनसेन हैं । राष्ट्रकूट वंश का जैनधर्म से घनिष्ठ सम्बन्ध था। नरेश अमोघवर्ष (प्रथम) इस वंश के महान प्रतापी शासक थे।
आचार्य जिनसेन के प्रतिभाशाली व्यक्तित्व का उन पर अतिशय प्रभाव था। जिनवाणी के कुशल संगायक प्राचार्य जिनसेन थे।