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________________ [ १५ प्राचीन आचार्य परम्परा बनकर वहाँ आया था । और एक वेश्या की छत पर बैठा मुनि को देख रहा था। दैवयोग से वहाँ एक गाय ने मुनिराज को धक्का देकर गिरा दिया। उन्हें गिरता देख, क्रोधित हुआ विशाखनन्दि वोला कि 'तुम्हारा जो पराक्रम हमें मारने को पत्थर का खंभा तोड़ते समय देखा गया था वह अव आज कहाँ गया ?' इस प्रकार खोटे. वाक्यों को सुनकर मुनिराज के मन में भी क्रोध आ गया और बोले कि इस हँसी का फल तुझे अवश्य ही मिलेगा । अन्त में निदान सहित संन्यास से मरण कर महाशुक्र स्वर्ग में देव हुए और विशाखभूति चाचा का जीव भी तप करके वहीं पर देव हुआ । चिरकाल तक सुख भोग कर वे दोनों वहाँ से च्युत होकर सुरम्य देश के पोदनपुर नगर में प्रजापति महाराज की जयावती रानी से विशाखभूति का जीव 'विजय' नाम का बलभद्र पदवी धारक पुत्र हुआ, और उन्हीं की दूसरी मृगावती रानी से विश्वनन्दी का जीव, नारायण पद धारक त्रिपृष्ठ नाम का पुत्र हुआ । एवं विशाखनंदी का जीव चिरकाल तक संसार में परिभ्रमण कर विजयाध पर्वत की उत्तर श्रेणी के अलकापुर नगर में मयूरग्रीव विद्याधर की नीलाञ्जना रानी से अश्वग्रीव नाम का प्रतिनारायण पद का धारक पुत्र हुआ । पूर्व जन्म के संस्कार से त्रिपृष्ठ नारायण ने अश्वग्रीव प्रतिनारायण को मारकर चक्ररत्न प्राप्त किया। चिरकाल तक राज्य सुख भोगकर अन्त में भोगासक्ति से मरकर सातवें नरक को प्राप्त किया । वहाँ के दुःखों को सागरों पर्यन्त सहकर, इसी भरत क्षेत्र के गंगा नदी तट के समीपवर्ती वन में सिंहगिरि पर्वत पर सिंह हुआ। वहाँ भी तीव्र पाप से पुनः प्रथम नरक को प्राप्त किया । वहाँ एक सागर तक दुःख भोगकर जंवू द्वीप में सिंहकूट की पूर्व दिशा में हिमवन पर्वत के शिखर पर सिंह हो गया। किसी समय एक हरिण को पकड़ कर मार कर खा रहा था, उसी समय अतिशय दयालु अजितंजय नामक चारण मुनि अमितगुण नामक मुनिराज के साथ आकाश में जा रहे थे। वे उस सिंह को देखकर तीर्थकर के वचन स्मरण कर दया वश वहाँ उतर कर सिंह के पास जाकर शिलातल पर बैठ गये और जोर-जोर से धर्ममय वचन कहने लगे। उन्होंने कहा हे भव्य मृगराज ! तूने त्रिपृष्ठ नारायण के भव में स्वच्छन्दतापूर्वक पाँच इन्द्रियों के विषयों का अनुभव कर उसके फलस्वरूप नरक में जाकर चिरकाल तक घोर दुःखों का अनुभव किया है । आयु समाप्त कर वहाँ से निकल कर सिंह हुआ और वहाँ भी भूख प्यास आदि की बाधाओं से अत्यन्त दुःखी हुआ, वहाँ तूने प्राणी हिंसा के पाप से आहार करते हुए पुन: पहले नरक को प्राप्त हुआ और वहाँ से निकल कर फिर तू सिंह हुआ है और इस तरह क्रूरता से पाप का संचय कर दुःख के लिए उद्यम कर रहा है, इत्यादि रूप से मुनिराज के वचनों को सुनकर उस सिंह को जातिस्मरण हो गया और उसकी आँखों से अश्रुओं की धारा बहने लगी। मुनिराज ने पुरुरवा भील से लेकर अब तक की पर्यायों का वर्णन किया अनंतर कहने लगे कि हे मुनिराज ! अब तू इस भव से दसवें भव में अंतिम तीर्थकर महावीर होगा यह सब मैंने श्रीधर तीर्थकर भगवान के मुख से सुना है.। पुनः मुनिराज ने सम्यक्दर्शन और व्रतों का उपदेश दिया।
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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