________________
१६ ]
प्राचीन आचार्य परम्परा
उस सिंह ने मुनिराज के वचन हृदय में धारण किये और भक्तिभार से दोनों मुनिराजों की बार-बार प्रदक्षिणायें देकर प्रणाम किया । काल आदि लब्धियों के मिल जाने से शीघ्र ही तत्त्व श्रद्धान और श्रावक के व्रत ग्रहण किये । इस प्रकार वह सिंह निराहार रहकर तिर्यंचगति के योग्य संयम संयम व्रत को स्थिरता से पालन कर व्रत सहित संन्यास धारण कर एकाग्र चित्त से मरा और सौधर्म स्वर्ग में दो सागर की आयु वाला सिंहकेतु नाम का देव हुआ । वहाँ से चयकर धातकी खंड के पूर्व विदेह की मंगलावती देश के विजयार्ध पर्वत की उत्तर श्रेणी में कनकप्रभ नगर के राजा कनकपु ख विद्याधर और कनकमाला रानी के कनकोज्ज्वल नाम का पुत्र हुआ । किसी एक दिन कनकवती नाम की अपनी स्त्रो के साथ मंदरगिरी पर प्रियमित्र नामक अवधिज्ञानी मुनि से धर्मोपदेश श्रवण कर जैनेश्वरी दीक्षा लेकर अंत में संन्यास से मरण कर सातवें स्वर्ग में तेरह सागर प्रमाण आयु वाला देव हुआ। वहाँ से च्युत होकर इसी साकेता नगरी के स्वामी वज्रसेन की शीलवती रानी से हरिषेण नाम का पुत्र हुआ और राज्यपद का अनुभव कर श्री श्रुतसागर मुनिराज के समीप जिन दीक्षा लेकर महाशुक्र स्वर्ग में सोलह सागर की आयु वाला देव हुआ । वहाँ से चयकर धातकी खंड के पूर्व विदेह में पुष्कलावती देश की पुंडरीकिणी नगरी के राजा सुमित्र और रानी मनोरमा से प्रियमित्र नाम का पुत्र हुग्रा । वह चक्रवर्ती के पद को प्राप्त कर भोगों को अनुभव करते हुए किसी दिन अपने सर्वमित्र पुत्र को राज्य देकर हजार राजाओं के साथ दीक्षित हो गया । श्रायु के अन्त में सहस्रार' स्वर्ग में अठारह सागर आयु के धारक सूर्यप्रभ नाम के देव हो गये । उस स्वर्ग से चयकर इसी जंबू द्वीप के छत्रपुर नगर के राजा नंदिवर्धन की वीरवती रानी से नंद नाम के पुत्र हुए, राज्य का उपभोग कर प्रोष्ठिल नामक गुरु के पास संयम ग्रहण कर ग्यारह अंगों का ज्ञान प्राप्त किया । दर्शन विशुद्धि आदि सोलह कारण भावनाओं के चितवन से उच्च गोत्र के साथ-साथ तीर्थकर नाम कर्म का बंध कर लिया और सब आराधनाओं को प्राप्त कर आयु के अंत में अच्युत स्वर्ग के पुष्पोत्तर विमान में श्रेष्ठ इन्द्र हुए। ये बाईस सागर की आयु के धारक थे ।
जब इनकी आयु छह मास बाकी रह गई तब इस भरत क्षेत्र के विदेह नामक देश संबंधी कुंडपुर नगर के राजा सिद्धार्थ के भवन के आँगन में प्रतिदिन साढ़े सात करोड़ प्रमाण रत्नों की धारा बरसने लगी । श्राषाढ़ शुक्ल षष्ठी के दिन रात्रि के पिछले प्रहर में रानी प्रियकारिणी ने सोलह स्वप्न देखे और पुष्पोत्तर विमान से अच्युतेन्द्र रानी के गर्भ में आ गये । प्रातःकालं राजा के मुख से स्वप्नों का फल सुनकर रानी अत्यन्त सन्तुष्ट हुई । तदनंतर देवों ने आकर गर्भ कल्याणकं उत्सव मनाकर माता-पिता का अभिषेक करके उत्सव मनाया ।
नवमास पूर्ण होने के बाद चैत्र शुक्ल त्रयोदशी के दिन रानी त्रिशला ने पुत्र को जन्म दिया । उस समय देवों के स्थानों में अपने श्राप वाद्य: बजने लगे, तीनों लोकों में सर्वत्र एक हर्ष की