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प्राचीन आचार्य परम्परा तीस करोड़ श्वान के भव। साठ लाख नपुंसक के भव । वीस करोड़ नारी के भव । नब्बे लाख धोवी के भव । आठ करोड़ घोड़ा के भव । वीस करोड़ विल्ली के भव । सा० लाख वार माता के गर्भ से असमय में मरण अर्थात् गर्भपात । पचास हजार राजा के भव
इस प्रकार अनेकों भव धारण करते हुए कभी सुपात्र दान के प्रभाव से यह जीव भोगभूमि में गया । अस्सी लाख वार देव पद को प्राप्त हुआ इसलिए आचार्य कहते हैं कि यह मिथ्यात्व बहुत ही बुरा है, तीन लोक और तीन काल में इससे बढ़कर और कोई भी इस जीव का शत्रु नहीं है। बुद्धिमान पुरुषों का कथन है कि यदि मिथ्यात्व और हिंसादि पापों की तुलना की जावे तो मेरु और राई के समान अंतर मालूम होगा।
___ इसके बाद कदाचित् यही जीवं कुछ पाप के मन्द होने से राजगृह नगर में स्थावर नाम का ब्राह्मण हो गया।
तदनन्तर मगध देश के इसी राजगृह नगर में वेद पारंगत शांडिल्य नामक ब्राह्मण को पारशरी ब्राह्मणी से 'स्थावर' नाम का पुत्र हुआ, वह भी वेद पारंगत सम्यक्त्व से शून्य पुनरपि. परिव्राजक के मत को धारण कर अन्त में मर कर माहेन्द्र स्वर्ग में सात सागर की आयु वाला देव हो गया। वहां से च्युत होकर इसी राजगृह नगर में विश्वभूति राजा की जैनी नामक रानी से विश्वनन्दी नाम का पुत्र हो गया। इसी विश्वभूति राजा का छोटा भाई विशाखभूति था, उसका पुत्र विशाखनन्दी नाम का था । एक दिन विश्वभूति राजा विरक्त हो अपने छोटे भाई को राज्य पद एवं पुत्र विश्वनन्दी को युवराज पद देकर जैनी दीक्षा लेकर कठिन तप करने लगे।
किसी दिन विश्वनन्दी युवराज के मनोहर नामक वगीचे को देखकर चाचा के पुत्र. विशाखनन्दि ने अपने पिता से उसकी याचना की। विशाखभूति राजा ने भी मायाचारी से विश्वनन्दी को शत्रुओं पर आक्रमण के लिए भेज कर उद्यान को अपने पुत्र को दे दिया। विश्वनन्दी को इस घटना का पता लगते ही उसने वापस आकर विशाखनन्दि को पराजित कर दिया और उसको भयभीत देख विरक्त होकर उसको उद्यान सौंपकर आप स्वयं दैगम्बरी दीक्षा लेकर तप करने लगा। .
घोर तपश्चरण करते हुए अत्यन्त कृश शरीरी वह विश्वनन्दी मुनिराज एक दिन मथुरा नगरी में आहार के लिए आए । व्यसनों से भ्रष्ट यह विशाखनंदी उस समय किसी राजा का दूत