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प्राचीन आचार्य परम्परा
[ १३ ध्वनि को सुनकर भी सच्चा धर्म ग्रहण नहीं किया । वह सोचता था कि जैसे भगवान वृषभ देव ने समस्त परिग्रह का त्याग कर तीन लोक में मोक्ष उत्पन्न करने वाली सामर्थ्य प्राप्त की है उसी प्रकार मैं भी अपने द्वारा चलाये गये दूसरे मत की व्यवस्था करके इन्द्र द्वारा की गई पूजा को प्राप्त करूंगा । इस प्रकार मान कषाय से कल्पित तत्त्व का उपदेश करते हुए आयु के अन्त में मरकर ब्रह्म स्वर्ग में देव हो गया । वहाँ से च्युत हो अयोध्या नगरी के कपिल ब्राह्मण की काली स्त्री से जटिल नाम का पुत्र हुआ । परिव्राजक के मत में स्थित होकर पुन: मरकर सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ । वहाँ से च्युत होकर भरत क्षेत्र के स्थूणागार नगर में भारद्वाज ब्राह्मण की पुष्पदत्ता स्त्री से पुष्पमित्र नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ । वहाँ भी संस्कार वश परिव्राजक बनकर प्रकृति पुरुष आदि पच्चीस तत्त्वों का उपदेश देकर श्रायु के अन्त में मरकर सौधर्म स्वर्ग में एक सागर आयु वाला देव हुआ। वहाँ से श्राकर इसी भरत क्षेत्र के सूतिका नामक गांव में अग्निभूत ब्राह्मण की गौतमी स्त्री से अग्निसह नाम का पुत्र हुआ । वहाँ भी मिथ्या पाखण्डी साघु होकर मरकर स्वर्ग प्राप्त किया । वहाँ से आकर इसी भरत क्षेत्र के मन्दिर नामक ग्राम में गौतम ब्राह्मण की कौशिकी ब्राह्मणी से अग्नि मित्र नाम का पुत्र हुआ । वहाँ भी उसने वही पारिव्राजक दीक्षा धारण कर महेन्द्र स्वर्ग को प्राप्त किया । फिर वहाँ से च्युत होकर मन्दिर नामक नगर में शालंकायन ब्राह्मण की मन्दिरा स्त्री से भारद्वाज नाम का पुत्र हुआ । वहाँ वह त्रिदण्ड से सुशोभित त्रिदण्डी साधु बना तदनंतर माहेन्द्र स्वर्ग को प्राप्त किया ।
फिर वहाँ से च्युत होकर कुमार्ग के प्रगट करने के फलस्वरूप मिथ्यात्व के निमित्त से समस्त अधोगतियों में जन्म लेकर उसने भारी दुःख भोगे । इस प्रकार त्रस स्थावर योनियों में संख्यातवर्ष तक परिभ्रमण करता हुआ बहुत ही श्रांत हो गया ।
अन्यत्र लिखा है कि "भारद्वाज ब्राह्मरण त्रिदण्डी साधु होकर माहेन्द्र स्वर्ग को प्राप्त हुआ पश्चात् वहाँ से च्युत होकर मिथ्यात्व के प्रभाव से इतर निगोद में चला गया वहाँ सागरोपम काल व्यतीत हो गया । अनन्तर अनेकों भव धारण किए उनकी गणना इस प्रकार है
अढ़ाई हजार प्राकवृक्ष के भव ।
वीस हजार नीम वृक्ष के भव । तीन हजार चन्दन वृक्ष के भव ।
साठ हजार वेश्या के भव ।
वीस करोड़ हाथी के भव ।
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अस्सी हजार सीप के भव ।
नब्बे हजार केलि वृक्ष के भव ।
पाँच करोड़ कनेर के भव ।
पाँच करोड़ शिकारी के भव ।
साठ करोड़ गधा के भव ।