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दिगम्बर जैन साधु
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अपने लक्ष्यों को पूर्ण कर ही विश्रान्ति लेते हैं । फलतः विद्योपार्जन लिए सं० १९५२ से १९८४ तक कई स्थानों में फिरे किन्तु पुनः वनारस जाकर पं० अम्बादासजी शास्त्री को अपना गुरु बनाया और वहीं से न्यायाचार्य प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कर पारितोषिक प्राप्त किया ।
विद्वत्ता के साथ-साथ संयम की साधना ने आपको पूज्य सन्त बना दिया और बड़े पंडितजी के नाम से प्रख्यात हुए । जितना प्रेम विद्या से था उससे भी कहीं अधिक जिनेन्द्र भक्ति से था । यही कारण है कि आपने विद्यार्थी जीवन में सं० १९५२ में गिरनारजी और सं० १९५६ में शिखरजी जैसे पवित्र तीर्थों की वंदना पैदल की थी।
संवत् १९६२ में श्री ग० दि० जैन संस्कृत विद्यालय की स्थापना सागर में कराई और संरक्षक पद को विभूषित किया । सं० १९७० में आप बड़े पंडितजी से सन्त वर्णीजी बने । सं० १९९३ सागर से बंडा मोटर द्वारा जा रहे थे कि ड्राईवर से झगड़ा हो गया । तब से मोटर में बैठना दूय रहा रेल आदि में भी बैठना छोड़ दिया ।
सं० २००१ में दशम प्रतिमा धारण की और फाल्गुन कृष्णा सप्तमी सं० २००४ को क्षुल्लक हो गये व लोग इन्हें बाबाजी के नाम से पुकारने लगे ।
सं० १९९३ में फाल्गुन मास में ७०० मील की पैदल यात्रा तय करते हुए बीच के तीर्थं स्थानों की भी वन्दना करते हुए शिखरजी पहुंचे । आपका लक्ष्य भगवान पार्श्वनाथ के चरणों में जीवन विताने का था । कुछ समय रहे भी फलस्वरूप उदासीनाश्रम की स्थापना हो गई । किन्तु २००१ में बसन्त की छटा से बुन्देलखण्ड ने आपको मोह लिया और एक बार फिर आपने बुन्देल वासियों को दर्शन दिये ।
वि० सं० २००२ में जबलपुर में आम सभा में अपनी चादर आजादी के पुजारियों की सहायतार्थ समर्पित कर दी। उस चादर के उसी क्षण तीन हजार रुपये मिले। सभा में आश्चर्यं हो गया, अरे यह क्या ! इस तरह आपके जीवन की सैंकड़ों घटनाएं हैं जिनका उल्लेख शक्य नहीं है । सं० २००२ से लेकर २००६ तक आपने बुन्देलखण्ड का भ्रमण किया और सैकड़ों विद्यालय, पाठशालायें, स्कूल और कालेज खुलवाकर अज्ञानरूपी अन्धकार को नष्ट कर दिया । यही कारण है कि श्राज जैन समाज में सैंकड़ों विद्वान देखे जा रहे हैं ।
सं० २००६ में आपने सागर में चातुर्मास किया । चातुर्मास के पश्चात् आपने ७०० मील की लम्बी यात्रा ७९ वर्ष की अवस्था में की और शिखरजी पहुंचे । आपकी इच्छा थी कि वृद्धावस्था