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दिगम्बर जैन साधु में पार्श्वप्रभु की शरण में रहे । आपकी इच्छा पूर्ण हुई । सं० २००६ से अन्तिम समय तक आप पार्श्व प्रभु के चरणों में रहे और यहीं पर अपनी देह विसर्जित की । हर समय आपके दर्शनों को हजारों की संख्या में लोग प्राते रहते थे और वहां सदा मेला सा लगा रहता था।
सन् १९५६ में भारत के राष्ट्रपति ने शिखरजी में आपसे भेंट की। दर्शन कर अत्यन्त प्रसन्न हुए। संवत् २०१२ में स्याद्वाद विद्यालय बनारस तथा सं० २०१३ में गणेश विद्यालय सागर की स्वर्णजयन्ती आपके सान्निध्य में मनायी गई । धर्म प्रेमीबन्धु वर्णीजी के दर्शन कर तथा उनके उपदेश सुन आनन्द विभोर हो गये । सन्त विनोबा ने भी आपसे कई बार भेंट की और वर्णीजी को अपना . बड़ा भाई मानकर चरण स्पर्श किये । सं० २०१६ में आचार्य तुलसी गणी ने आपके दर्शन कर प्रसन्नता प्राप्त की थी।
पूज्य वर्णीजी मनसा, वाचा, कर्मणा एक थे । उन जैसा निःस्पृही और पारखी व्यक्ति देखने में नहीं आया। जो भी आपके पास आया सम्मान पाया विरोधी भी नतमस्तक हुए।
अन्तिम समय तक ८७ वर्ष की अवस्था में भी आपकी ज्ञानेन्द्रियां सतर्क थीं। दो माह की लम्बी बीमारी के कारण शरीर शिथिल पड़ गया था। दैनिकचर्या में कभी शिथिलता नहीं पाने पाई थी। आहार की मात्रा आधा पाव जल तथा थोड़ा सा अनार का रस ही रह गया था। अन्तिम दो दिनों में उसका भी त्याग कर दिया । ३ सि० १६६१ को यम सल्लेखना ली और सब प्रकार के परिग्रह का परित्याग कर दिया। ५ सितम्बर को प्रातः आपके चेहरे पर नई मुस्कान थी। इसी दिन आपने त्यागियों और विद्वानों के समक्ष मुनि दीक्षा ग्रहण की और आपका नाम गणेशकीति रखा गया। आपकी परिचर्यों में विद्वान, त्यागी, सेठ, साहूकार आदि सभी सदा तत्पर रहे। ५ सितम्बर को रात्रि के डेढ़ बजे पूज्य श्री सदा के लिए विलग हो गये ।
यद्यपि पूज्य श्री का भौतिक शरीर चिता की ज्वलन्त ज्वालाओं में विलीन हो गया है तथापि उनकी आत्म शक्ति द्वारा निखर कर विश्व में सर्वत्र व्याप्त हो गये हैं। वे धन्य थे। उनके अभाव से ऐसा जान पड़ता है, मानों जैन समाज का सूर्य अस्त हो गया।
राजनीति न्याय और धर्म को जीवन से पृथक् नहीं मानते हैं । आपके मतानुसार धर्म का. राष्ट्र और समाज से निकटस्थ सम्बन्ध है।
आप इस बीसवीं सदी के उन महान् आध्यात्मिक सन्तों में से एक हैं जिन्होंने भौतिकता की सारहीनता को स्वयं के जीवन-अध्याय से दिखाकर कहा कि "भारत की समृद्धि तो उसकी आध्यात्मिक