________________
५४६ ]
दिगम्बर जैन साधु देख माताजी ने कहा बेटा चिन्ता छोड़ो और आज से तुम मेरे धर्म पुत्र हुए और जो करना चाहो करने के लिए स्वतन्त्र हो । माताजी के वचन सुनकर वर्णीजी का हृदय पुलकित हो उठा।
माता सिंघेनजी की भी इच्छा थी अतः माताजी की आज्ञा पाकर विद्यासिद्धि के लिए निश्चित होकर निकल पड़े। रास्ते में सामान चोरी चला गया, केवल पांच आने पैसे और छतरी शेष थी। चिन्ता में पड़ गये, क्या किया जाय छतरी तो आपने छः आने में बेच दी और एक-एक पैसे के चने खाकर इस सन्त ने दिन व्यतीत किये । इसी बीच एक दिन रोटी बनाने का विचार किया किन्तु बर्तन न थे । पत्थर पर आटा गूथा और कच्ची रोटी में दाल भिगोकर और ऊपर से पलाश के पते लपेटकर मन्दी प्रांच में डाल दी। रोटी और दाल बनकर तैयार हुई फिर सानन्द भोजन किया।
एक बार अध्ययन काल में आप खुरई पहुंचे तब पं० पन्नालालजी न्याय दिवाकर से धर्म का मर्म पूछा । पण्डितजी चिल्लाकर बोले अरे तू क्या धर्म का मर्म जानेगा। तू तो केवल खाने को जैन हुआ है । इस प्रकार के वचन आपने धैर्यपूर्वक सुने ।
एक बार आप गिरनारजी जा रहे थे, मार्ग में बुखार और तिजारी ने सताया। पैसे भी पास में नहीं । तब रास्ते में सड़क बनाने वाले मजदूरों के साथ मिट्टी खोदना प्रारम्भ किया, लेकिन एक टोकरी मिट्टी खोदी कि हाथ में छाले पड़ गये। मिट्टी खोदना छोड़कर ढोना स्वीकार किया परन्तु वह भी आपसे न हुआ अतः दिन भर की मजदूरी न तो तीन पैसे और न नो पैसे मिले किन्तु दो पैसे मिले । दो पैसे का आटा लिया, दाल को पैसे कहाँ । अतः नमक की डली से रूखी रोटी खानी पड़ी।
विद्याध्ययन हेतु वि० सं० १९५२ में बनारस पहुंचे। किसी ने पढ़ाना स्वीकार नहीं किया, नास्तिक कहकर भगा दिया । आपने निश्चय किया कि मैंने यहां एक जैन विद्यालय न खोला तो कुछ नहीं किया । आपने अपने कठिन परिश्रम से सं० १९५२ में स्याद्वाद महाविद्यालय की स्थापना कराई।
वि० सं० १९५३ में आपकी धर्म पत्नी का स्वर्गवास हो गया किन्तु लेशमात्र भी खेद न हुआ। एक शल्य टली कह कर प्रसन्न हुए।
सामाजिक क्षेत्र में भी लोगों ने आपकी परीक्षा की, किन्तु अडिग रहे, अन्त में शत्रुओं को, परास्त होना पड़ा । मूर्ति अगणित टांकियों से टांके जाने पर ही पूज्य होती है। आपत्ति और जीवन के संघर्षों से टक्कर लेने पर ही मनुष्य महात्मा बनता है । कर्तव्यशील व्यक्ति अनेक कष्टों को सहकर