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दिगम्बर जैन साधु
[ ५४५ नाम को सार्थक कर दिखाया । इनका लालन पालन विशेष सावधानी से किया गया । जब ७ वर्ष के हुए तो पिताजी ने इनका नाम गांव के स्कूल में लिखा दिया। इनका शिक्षा केन्द्र घर और स्कूल के अतिरिक्त राममन्दिर भी था । ७ वर्ष की अल्प अवस्था में आपने विवेक और बुद्धि द्वारा गुरु से विद्या को पैतृक सम्पत्ति स्वरूप प्राप्त किया।
"होनहार विरवान के, होत चीकने पात" वाली कहावत के अनुसार आपमें शुभ लक्षण दृष्टिगोचर होने लगे । गुरु की सेवा करना अपना परम कर्तव्य समझते थे। गुरुजी को हुक्का पीने की आदत थी, अतः हुक्का भरने में जरा भी आनाकानी नहीं करते थे । निर्भीकता आपमें कूट कूट कर भरी थी। निडर हो आपने एक दिन तम्बाकू के दुर्गुण अपने गुरुजी को बता दिये और हुक्का फोड़ डाला । गुरुजी नाराज होने की अपेक्षा प्रसन्न हुए और तम्बाकू पीना छोड़ दिया।
वह विक्रम संवत् १६४१ था जवकि १० वर्ष की अवस्था में जैन मंदिर के चबूतरे पर शास्त्र प्रवचन से प्रभावित होकर "रात्रि भोजन त्याग" की प्रतिज्ञा ली और सनातन धर्म छोड़कर जैनधर्म स्वीकार किया।
इच्छा तो नहीं थी किन्तु जातीय विवशता थी अत। वि० सं० १९४३ में १३ वर्ष की अवस्था में यज्ञोपवीत संस्कार हो गया। सं० १९४६ में आपने हिन्दी मिडिल प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण कर लिया, परन्तु दो भाईयों का वियोग अध्ययन में वाधक बन बैठा । अब आपका विद्यार्थी जीवन समाप्त हो गया और गृहस्थावस्था में प्रवेश किया। वि० सं० १९४६ में १६ वर्ष की आयु में मलहार ग्राम की सत्कुलीन कन्या आपको जीवन संगिनी बनी किन्तु स्वयं की इच्छा से नहीं।
विवाह के पश्चात् ही पिताजी का स्वर्गवास हो गया, किन्तु पिताजी का भी अन्तिम उपदेश यही था बेटा यदि जीवन में सुख चाहते हो तो जैन धर्म को न भूलना । आत्मा दुःखी तो थी ही और गृहभार का भी प्रश्न सम्मुख था, अतः पास के गांव में मास्टरी करना शुरू कर दिया। आपका लक्ष्य तो अगाध ज्ञानरूप समुद्र में गोता लगाना था अतः आप मास्टरी छोड़ पुन: विद्यार्थी जीवन में प्रविष्ट हुए और यत्र तत्र नीर पिपासु चातक की तरह विद्या की साधना को चल पड़े।
वह पुण्य वेला संवत् १९५० थी जबकि सिमरा ग्राम में पूज्य माता सिंघन चिरोंजाबाईजी से भेंट हुई थी। माता चिरोंजावाईजी के दर्शन कर मन आनन्द विभोर हो उठा । माताजी के हृदय से भी पुत्रवात्सल्य उमड़ पड़ा और स्तनों से एकदम दुग्धधारा प्रवाहित हो पड़ी। वर्णीजी को चिन्तातुर