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दिगम्बर जैन साधु
१९६९ में तीर्थाधिराज सम्मेद शिखरजी की पारसनाथ टोंक पर श्राप मुनि श्री १०८ निर्मल सागरजी के सान्निध्य में निर्ग्रन्थ- दीक्षा से विभूषित हुए । मुनि दीक्षा से अलंकृत होने से श्रापके प्रगतिशील जीवन में जैसे चार चांद लग गये ।
मुनि श्री विवेकसागरजी महाराज
उमर के साठ बसन्त निकलते ही घर के किसी कोने में बूढ़े को बिठा देने का गांव का ग्राम रिवाज बदस्तूर अब भी निर्विघ्न चल रहा है। इस संदर्भ में हर बार तर्क के घेरे में फेंका गया सवाल कुण्ठित होकर निकला है । घर का उद्दाम युवा शासक साठिये की अन्तःशक्ति की ओर झांके बिना उसे साठियाया कहने में अपनी भलाई मानता है । लेकिन बंकटलाल की करनी से उन्हें भी श्राखिर दांतों तले अंगुलियां दबानी पड़ी। नांदेड जिले में सीरडवनिका गांव विरागियों का गढ़ है वहां श्रावक शंकरलाल पत्नी सोनाबाई के साथ व्यवसाय से जीवन निर्वाह करते हुए धर्माराधना में समय बिताते थे । सं० १९७२ में बंकटलाल ने इन्हीं के घर जन्म लेकर निजकुल के साथ-साथ जिनशासन गौरवान्वित किया । कारण छोटा सा था विराग का, पर था हृदय की गहराई तक धंस जाने वाला । "शैव" साधु की विरागी प्रवृत्ति ने इन्हें झकझोर डाला । सुमार्ग सद्गुरु की पहचान का विवेक उन्हें अच्छी तरह था । सन् ७१ में आ० श्री विमलसागरजी म० से सप्तम प्रतिमा के व्रत लेकर कठिन परीक्षा की तैयारी शुरू की । आसौज कृ० ६ सं० २०३३ को औरंगाबाद में पू० मुनि श्री निर्मलसागरजी म० के समक्ष देह निर्ममत्व की परीक्षा देते हुए कृपासिन्धु गुरुवर से क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण की । आचार्य श्री ने आपके विवेक की सराहना करते हुए "विवेकसागर" नाम से पुकारा । आपको तेलगू, हिन्दी, उर्दू, गुजराती, मराठी, राजस्थानी भाषाओं का अच्छा ज्ञान है । सम्प्रति गुरु आदेश से अपनी विवेक असि को भांजते हुए कर्मो की कड़ियां काट रहे हैं ।