________________
६ ]
प्राचीन आचार्य परम्परा
नीचे बैठकर उच्चस्वर से महामन्त्र का उच्चारण करते हुए सल्लेखना से मरण को प्राप्त हो गया ।
जम्बूद्वीप के महामेरु से पूर्व की ओर विदेह क्षेत्र में पुष्पकलावती देश है उसके उत्पलखेटक नगर के राजा वज्रवाहु और रानी वसुंधरा से वह ललितांग देव 'वज्रजंघ' नामक पुत्र उत्पन्न हुआ । उधर अपने पति के अभाव में वह पतिव्रता स्वयंप्रभा छह महीने तक बरावर जिनपूजा में तत्पर रही । पश्चात् सौमनस वन सम्बन्धी पूर्व दिशा के जिन मन्दिर में चैत्यवृक्ष के नीचे पंचपरमेष्ठी का स्मरण करते हुए समाधिपूर्वक प्राण त्याग दिये, और विदेह क्षेत्र की पुंडरीकिरणी नगरी के राजा वज्रदन्त की महारानी लक्ष्मीमती से 'श्रीमती' नाम की कन्या उत्पन्न हो गयी । कालान्तर में निमित्तवश इस वज्रजंघ और श्रीमती का विवाह हो गया । इनके उन्चास युगल पुत्र उत्पन्न हुए अर्थात् अट्ठानवे पुत्र उत्पन्न हुए । किसी समय वे अपने बाबा के साथ दीक्षित हो गये ।
किसी समय श्रीमती के पिता चक्रवर्ती वज्रदन्त ने छोटे से पोते पुंडरीक को राज्याभिषेक कर दिया और विरक्त होकर दीक्षा ले ली । उस समय लक्ष्मीमती माता ने अपनी पुत्री और जमाई को बुलाया । ये दोनों वैभव के साथ पुंडरीकिरणी नगरी की ओर आ रहे थे । मार्ग में किसी वन में पड़ाव डाला । वहाँ पर आकाश में गमन करनेवाले श्रीमान् दमघर और सागरसेन मुनि युगल वज्रजंघ के पड़ाव में पधारे । उन दोनों ने वन में ही आहार लेने की प्रतिज्ञा ली थी । वहाँ वज्रजंघ ने श्रीमती सहित भक्ति से नवधाभक्ति सहित विधिवत् आहार दान दिया और पंचाश्चर्य को प्राप्त हुए । अनन्तर उन्हें कंचुकी से विदित हुआ कि ये दोनों मुनि हमारे ही अन्तिम पुत्र युगल हैं । राजा वज्रजंघ और श्रीमती ने उनसे अपने पूर्वभव सुने और धर्म के मर्म को भी समझा । अनन्तर पास में बैठे हुए नकुल, सिंह, वानर और सुअर के पूर्व भव सुने । उन मुनियों ने यह भी बताया कि आप आठवें भव में वृषभ तीर्थकर होवोगे और श्रीमती का जीव राजा श्रेयांसकुमार होंगे ।
किसी समय वज्रजंघ महाराज रानी सहित अपने शयनागार में सोये हुए थे उसमें नौकरों ने कृष्ण गुरु आदि से निर्मित धूप खेई थी और वे नौकर रात में खिड़कियाँ खोलना भूल गये, जिसके निमित्त धुएँ से कण्ठ रुँधकर वे पति पत्नी दोनों ही मृत्यु को प्राप्त हो गये । आश्चर्य है कि भोग सामग्री प्राणघातक वन गयी। वे दोनों दान के प्रभाव मरकर उत्तर कुरु नामक उत्तम भोगभूमि में भोगभूमियाँ हो गये । वे नकुल आदि भी दान की अनुमोदना से भोग भूमि को प्राप्त हो गये ।
किसी समय दो चार मुनि आकाश मार्ग से वहाँ भोग भूमि में उतरे और इन वज्रजंघ श्रार्य और श्रीमती आर्या को सम्यग्दर्शन का उपदेश देने लगे । ज्येष्ठ मुनि बोले, हे आर्य ! तुम मुझे