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प्राचीन आचार्य परम्परा
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स्वयं बुद्ध मन्त्री का जीव समझो । मैंने तुम्हें महाबल पर्याय में जैन धर्म ग्रहण कराया था । उन दोनों दम्पत्तियों ने मुनियों के प्रसाद से सम्यग्दर्शन ग्रहण किया और आयु के अन्त में च्युत होकर ईशान स्वर्ग में 'श्रीधर' देव और स्वयंप्रभ नाम के देव हुए । अर्थात् श्रीमती कां जीव सम्यक्त्व के प्रभाव से स्त्री पर्याय छोड़कर देव पद को प्राप्त हो गया । एक दिन श्रीधर देव ने अपने गुरु ( स्वयंबुद्ध मन्त्री के जीव ) प्रीतिकर मुनिराज के समवसरण में जाकर पूछा - भगवन् ! मेरे महाबल के भव में जो तीन मन्त्री थे वे इस समय कहाँ हैं ? भगवान् ने बताया कि उन तीनों में से महामति और सम्भिन्न
ये दो तो निगोद स्थान को प्राप्त हुए हैं और शतमति नरक गया है । तब श्रीधरदेव ने नरक में जाकर शतमति के जीव को सम्बोधित किया था तथा निगोद के जीवों को सम्बोधन का सवाल हो नहीं है ।
जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह में महावत्स देश है उसकी सुसीमा नगरी के सुदृष्टि राजा की सुन्दरनन्दा रानी से वह श्रीधर देव स्वर्ग से च्युत होकर 'सुविधि' नाम का पुत्र हुआ था । कालांतर
सुविधि की रानी मनोरमा से स्वयंप्रभ देव ( श्रीमती का जीव ) स्वर्ग से च्युत होकर केशव नाम का पुत्र हो गया, मतलव वज्रजंध का जीव मुविधि राजा हुआ और श्रीमती का जीव उसका पुत्र
कदाचित् सुविधि महाराज दैगम्बरी दीक्षा लेकर अन्त में मरकर अच्युतेन्द्र हुए और केशव ने भी निर्ग्रन्थ दीक्षा लेकर अच्युत स्वर्ग में प्रतीन्द्र पद प्राप्त किया ।
वह अच्युतेन्द्र, जम्बूद्वीप के पूर्वविदेह में पुष्कलावती देश की पुंडरीकिणी नगरी में वज्रसेन राजा र श्रीकान्ता रानी से वज्रनाभि नाम का चक्रवर्ती पुत्र उत्पन्न हुआ । श्रीमती का जीव केशव जो कि अच्युत स्वर्ग में प्रतीन्द्र हुआ था वह भी वहाँ से च्युत होकर इसी नगरी में कुबेरदत्तंवणिक Satara पत्नी से धनदेव नाम का पुत्र हुआ । वज्रनाभि के पिता तीर्थकर थे और वह स्वयं चक्रवर्ती था, चक्ररत्न से षटखंड वसुधा को जीतकर चिरकाल तक साम्राज्य सुख का अनुभव किया । किसी समय पिता से दुर्लभ रत्नत्रय के स्वरूप को समझकर अपने पुत्र वज्रदन्त को राज्य समर्पण कर सोलह हजार मुकुटवद्ध राजाओं, एक हजार पुत्रों, आठ भाइयों और धनदेव के साथ-साथ पिता वज्रसेन तीर्थकर के समवसरण में जिन दीक्षा धारण कर ली और किसी समय तीर्थकर के ही निकट सोलह कारण भावनाओं का चिन्तवन करते हुए तीर्थंकर प्रकृति का वन्ध कर लिया । ध्यान की विशुद्धि से ग्यारहवें गुणस्थान में पहुंच गये और वहाँ का अन्तर्मुहूर्त काल पूर्ण कर नीचे उतरे, पुनरपि कदाचित् उपशम श्रेणी में चढ़ गये और वहाँ आयु समाप्त होते ही मरण कर सर्वार्थसिद्धि में श्रहमिन्द्र हो गये ।
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