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: प्राचीन आचार्य परम्परा
[५ वार नमस्कार किया और पूजा की । यथाक्रम से भद्रसाल आदि वन के समस्त अकृत्रिम प्रतिमाओं की वन्दना की और सौमनस वन के चैत्यालय में बैठ गया। इतने में ही विदेह क्षेत्र से आये हुए, आकाश में चलने वाले आदित्य गति और अरिंजय नाम के दो चारण मुनि अकस्मात् देखे, वे दोनों ही मुनि 'युगंधर' भगवान के समवसरणरूपी सरोवर के मुख्य हंस थे । मन्त्री ने उठकर उन्हें प्रदक्षिणा पूर्वक प्रणाम करके पूजा और स्तुति की अनन्तर प्रश्न किया हे स्वामिन् ! विद्याधर का राजा महाबल हमारा स्वामी है । वह भव्य है या अभव्य ? मेरे द्वारा सन्मार्ग भी ग्रहण करेगा या नहीं? इस प्रश्न के वाद आदित्यगति नामक अवधिज्ञानी-मुनि कहने लगे हे भव्य ! तुम्हारा स्वामी भव्य ही है। वह तुम्हारे वचनों पर विश्वास करेगा और आज से दसवें भव में जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में प्रथम तीर्थंकर होगा। इसके पूर्वभव को तुम सुनो
जम्बूद्वीप के मेरु पवत से पश्चिम की ओर विदेह क्षेत्र में 'गंधिला' देश में सिंहपुर नगर है वहाँ के श्रीषेण राजा की सुन्दरी रानी से जय वर्मा और श्री वर्मा ऐसे दो पुत्र हुए थे। पिता ने योग्यता और स्नेह के निमित्त से छोटे पुत्र श्री वर्मा को राज्य दे दिया। तब जय वर्मा विरक्त होकर स्वयंप्रभु गुरु से दीक्षा लेकर तपश्चरण करने लगा और किसी समय आकाश मार्ग में जाते हुए महीधर विद्याधर होने का निदान कर लिया। इतने में ही सर्प के डसने से मरकर तुम्हारा स्वामी महाबल हुआ है । आज रात्रि में उसने दो स्वप्न देखे हैं; तुम जाकर उनका फल कहकर उसके पूर्व भव सुनायो। [ उसका कल्याण होनेवाला है ]
गुरु के वचन से मन्त्री वहाँ आकर वोले-राजन् ! आपने जो स्वप्न देखा है कि तीनों मन्त्रियों ने कीचड़ में डाल दिया और मैंने उठाकर सिंहासन पर बैठाया सो यह मिथ्यात्व के कुफल से
आप निकलकर जिनधर्म में आ गये हैं । दूसरे स्वप्न में जो आपने अग्नि की ज्वाला क्षीण होते देखी उसका फल आपकी आयु एक माह की शेष रही है। आप इस भव में तीर्थंकर होंगे इत्यादि । सारी वातें सुना दी मन्त्री ने । राजा महावल ने भी अपने पुत्र अतिबल को राज्य भार सौंपकर सिद्धकूट चैत्यालय में जाकर सिद्ध प्रतिमाओं की पूजा करके गुरु की साक्षी पूर्वक जीवन पर्यन्त के लिये चतुराहार त्याग कर सल्लेखना धारण कर ली और धर्मध्यान पूर्वक मरण करके ऐशान स्वर्ग के श्रीप्रभ विमान में ललितांग नाम का उत्तम देव हो गया। जब उसकी आयु पृथक्त्व पल्य के बराबर रह गयी तब उसे स्वयंप्रभ नाम की एक और देवी प्राप्त हुई । अन्य देवियों की अपेक्षा ललितांग देव को यह देवी विशेष प्यारी थी। जब उस देव की माला आदि मुरझाई तब मृत्यु निकट जानकर शोक करते हुए इसको अनेकों देवों ने सम्बोधन किया, जिसके फलस्वरूप इस देव ने पन्द्रह दिन तक जिन चैत्यालयों को पूजा को और अच्युत स्वर्ग की जिन प्रतिमाओं की पूजा करके वहीं पर चैत्यवृक्ष के