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दिगम्बर जैन साधु करके जिनधर्म की सतत् प्रभावना की । कालान्तर में आप आ० श्री महावीरकीतिजी म० के संघ में प्रविष्ट हो गये । प्राचार्य श्री ने मेहसाना में माघ कृ. पंचमी २०२८ को आचार्य पद पर आसीन किया।
प्रभावना :
आपने निरन्तर महावत की निरतिचार चर्या का पालन करते हुए सम्पूर्ण भारत में भ्रमण करके भव्यों को संबोधा । बाकल [ जबलपुर ] में घोर कायोत्सर्ग तप करके अजैन जनता को भी इतना प्रभावित किया कि हजारों स्त्री-पुरुषों ने जैन धर्म की महत्ता को स्वीकार कर अणुव्रत ग्रहण कर देव दर्शन की प्रतिज्ञा ली। श्राविका श्रीमती प्यारीबाई जैन के गृह में निरन्तराय आहार होते ही दो भव्यों को प्रतिबोध प्राप्त हो गया और उन्होंने उसी दिन क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण कर ली। आचार्य ने ठीक ही कहा है कि द्रव्य में योग्यता होने पर भी निमित्त की जरूरत होती है ।
निमित्त मान्तरं तत्र योग्यता वस्तुनि स्थिता।
बहिनिश्चय कालस्तु निश्चितस्तत्व दशिभिः ।। विधान और प्रतिष्ठा कराने के लिये आप सतत प्रयत्नशील रहते हैं । चातुर्मास :
बाराबंकी, बड़वानी, मांगीतुंगी, श्रवणबेलगोल, हूमच, कुथलगिरि, गजपंथा, दुर्ग (म०प्र०) आदि में चातुर्मास करके रत्नत्रय की अराधना की । आपकी विद्वत्ता और तपश्चर्या से प्रभावित होकर समाज ने सम्मेदगिरि में चारित्रनायक, इटावा में अध्यात्म योगी सम्राट, जबलपुर में चारित्र चक्रवर्ती की उपाधियों से आपके गुणों की स्तुति की। तपश्चर्या :
__आगम सम्मत "तप" तपते हुए इस काल में महावतियों की चर्या को उजागर करते रहते हैं । खारा, मीठा, स्निग्ध, दही, समस्त मसाले, अनाज, तिलहन आदि का आजन्म त्याग है । इटावा में कड़ाके की धूप में एक पहर तक खड़े रहे, जिसे देखकर जनता आश्चर्यचकित हो गई। संघ विस्तार :
आपके चरण युगलों में तेरह भव्यात्माओं ने आश्रय लेकर अपने कर्मास्रवों के आवेग को रोका है