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दिगम्बर जैन साधू प्राचार्यश्री सन्मतिसागरजी महाराज
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जीर्ण-शीर्ण मटमैला कागज मुट्ठी में भीचे जयमाला पंडितजी की ड्योढी से बाहर निकली. तो ज्योतिष से उसका सारा विश्वास जाता रहा ।दो डब्बल पोथी-पत्तर पर दक्षिणा के रखने पड़े इसका मलाल दिल में उसे कतई नहीं था । पर पुरखों को भी जो नसीव नहीं हुआ, कम से कम तीन पीढ़ियों की बात तो उसे याद है, वही वात पंडितजी उसके लाल को बतायें, गरहन को गिनती में ज़रूर कहीं गल्ती है....... वुदबुदाती सी वारम्बार हौले से अपना सिर मटकाती जाती । कानों में रह-रहकर पंडितजी के शब्द गूज उठते, "अरी भागवान ! जां जा, शादी की बात
पूछती है," अरे तेरा लाला तो महाराजा बनेगा, महाराजा ।" प्यारेलाल ने सुना तो वह भी अचरज में आ गये। भला फफोतू ( एटा ) जैसा गांव
और पंडितजी की बात । वे दम्पति यह न समझ सके कि माघ शु०.६ सं० १९६५ में जिस संतान ने उनके प्रांगन को पवित्र किया है, वह सुरराजों को भी अलभ्य ऐसी जैनेश्वरी दीक्षा से विराग की धारा में संसार को डुबोता हुआ मुक्ति श्री का अधिपति बनने चल पड़ेगां । उन्हें इसका भी ध्यान नहीं रहा कि उन्होंने ही तो पंचपरमेष्ठी वाचक 'ओम' के साथ उसका नाम 'प्रकाश' रखा था। पंडितजी की ग्रह गणना इसी की टीका थी। .
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प्रारम्भिक शिक्षा समाप्त होने के पश्चात् ओमप्रकाश ने छंद, व्याकरण, ज्योतिष, आगमशास्त्र, साहित्य का गहरा अध्ययन किया । फलतः विवेक चक्षु खुल गये। सं० २०१८ में पूज्यपाद प्रा० श्री महावीरकीतिजी म० से मेरठ की पुण्यभूमि में "ब्रह्म" बनने की चाह से ब्रह्मचर्य व्रत धारण किया और एक मास वाद क्षुल्लक दीक्षा लेकर धर्म नौका पर सवार हो गये। निरन्तर गुरु सेवा . और शास्त्र स्वाध्याय करते हुए आपने शाश्वत तीर्थ राज सम्मेदशिखर के पादमूल में आ० श्री विमलसागरजी म० से शेष परिग्रह हरण की प्रार्थना की । शिष्य की योग्यता और भावों की विशुद्धि देखकर आचार्य श्री ने सं० २०१६ कार्तिक शु० १२ को निर्ग्रन्थ पद देकर "सन्मति सागर" नाम दिया तथा कर्मवेड़ियों को चटकाने का आदेश दिया । आपने गुरु आज्ञा स्वीकार कर घोर तपश्चरण