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दिगम्बर जैन साधु क्षुल्लक सुपार्श्वसागरजी महाराज
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पुरुषार्थ चतुष्टय में अंतिम पुरुपार्थ मोक्ष को साधने के लिये संयम की चौखट पर थाप दिये विना जो चल पड़ते हैं वे मारीचि की स्मृति जगाये रखने के सिवाय भला संसार में और कौनसा महान कार्य कर रहे हैं। टोडारायसिंह ( टोंक ) में अध्यात्म की अनबूझ पहेली में उलझे श्रावकों में बहस की बात भी सदैव "मार्ग" की रही है। सनातनियों
और अध्यात्मपंथियों की यह कोरी उठापटक द्रविड प्राणायाम ही सिद्ध होती यदि सुवालाल जैन क्षुल्लक दीक्षा लेकर हमारे मध्य न आये होते । खण्डेलवाल फूलचन्द जैन
और उनकी पत्नी एजनवाई आर्ष परम्परा के उपासक तो रहे हैं । परन्तु यह तो उनने भी नहीं सोचा होगा कि .
फाल्गुन शु० १० सं० १६६६ में जन्मी उनकी यह संतान शास्त्रीय चर्चा को एक दिन आचरण का जामा पहन कर सवकी पूज्य वन जायगी । राजपूताने की तपती रेत में तृपा शान्त करने के साधन सुदूर-दूर तक अलभ्य जैसे भले ही रहे पायें पर धर्मामृत की वर्षा का कभी अकाल नहीं पड़ा । यह बात सुजानगढिया और लाडनू वाले भली भांति जानते हैं । पू० मुनि श्री सन्मतिसागरजी म० का सं० २०३३ कार्तिक शु० ६ को सुजानगढ़ में पदार्पण हुआ तो गुरु सान्निध्य मिलते ही सुवालाल के हृदय में वैराग्य को तरंगें हिलोर मारने लगीं । गुरु ने श्रावक समुदाय के समक्ष जनेश्वरी क्षुल्लक दीक्षा प्रदान करते हुए आपको "सुपार्श्वसागर" के नाम से संबोधित किया। गुरू कृपा से आज ७१ वर्ष की आयु में भी पू० सुपार्श्वसागरजी म० निरन्तर शास्त्राभ्यास करते हुए असहाय संसारी प्राणियों की नैया भवसागर से पार उतारने में लगे हुए हैं । आपने दीक्षा काल से लेकर अब तक नागौर, उदयपुर, जयपुर, टोडारायसिंह नगरों में चतुर्मास करके अनगिनत प्राणियों को चारित्र धर्म का मर्म समझा कर उनका असीमित संसार सीमित कर दिया।