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________________ SAT .' दिगम्बर जैन साधु [ २६१ पास अल्पायु में ही प्रायिका दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा के अवसर पर आपने एक घन्टा भर जनता को धर्मोपदेश व वैराग्य के भाव सुनाये । दीक्षा नाम प्रा० चन्द्रमतीजी है अव वर्तमान समय में भी आत्महित के कारण निरन्तर ज्ञान, ध्यान का अभ्यास करते ही रहते हैं चारित्र पालन के साथ साथ ज्ञानाभ्यास हिन्दी व संस्कृत का ज्ञान बढ़ाया । मधुर मधुर व्याख्यानों के द्वारा जनता को धर्मोपदेश सुनाते हैं उपदेश की शैली बहुत ही मीठी है व जनता को आकर्षित करती है शरीर से तो कमजोर व दुबले पतले दिखाई देते हैं परन्तु आत्म बल के द्वारा ज्ञान व चारित्र की वृद्धि के लिए निरन्तर ग्रन्थों का अध्ययन करते ही रहते हैं मन में क्लेश कषाय भाव जल्दी उत्पन्न नहीं होते हैं इसप्रकार स्वपर कल्याण करते रहें यही हमारी भावना है। प्राधिका शांतिमती माताजी म १०५ श्री शान्तिमती माताजी सबसे वयोवृद्ध आर्यिका हैं यथा नाम तथा गुण के वाक्यानुसार बड़ी शांत प्रकृति की साध्वी हैं । तात्विक चर्चा में रुचि रखती हैं । आपका जन्म हमेरपुर में श्रीमान अम्बालालजी वड़जात्या की धर्मपत्नी श्री फुदीबाई की कुक्षी से हुआ। आपका जन्म नाम गुलाबबाई था आपका विवाह टोडारायसिंह निवासी श्री गुलाबचन्दजी पाटनी से हुआ। आपकी वैराग्य भावना वाल्यावस्था से ही थी परन्तु स्त्री पर्याय के कारण परिस्थिति वश शादी करनी पड़ी परन्तु वैराग्य भावना आगे बढ़ने लगी आपके तीन लड़कियां और दो लड़के हैं घर में सब तरफ से सम्पन्न कार्य है परन्तु भावना नहीं रुकी और आयिका श्री इन्दुमतिजी का ससंग मिला और उनसे आपने दो प्रतिमा के व्रत लिये । पूज्य १०८ श्री वीरसागरजी महाराज का टोडारायसिंह में शुभागमन हुआ। उनके उपदेशों का ऐसा प्रभाव पड़ा कि आपने उनसे ही पांचवीं प्रतिमा के व्रत धारण किये । और सीकर में प्रा० श्री शिवसागरजी महाराज से आपने सातवीं प्रतिमा धारण की । पश्चात् आर्यिका दीक्षा टोडारायसिंह में पूज्य मुनिराज श्री १०८ सन्मति सागरजी म० से वि० सं० २०२८ में मंगसिर कृष्णा ६ को ग्रहण की । सम्पूर्ण परिवार आदि त्याग कर उत्तरोत्तर त्याग तपश्चर्या एवं ज्ञान को बढ़ाया। स्कूली शिक्षा बिल्कुल नहीं पाने पर भी आप अभ्यास के द्वारा स्वाध्याय पाठ क्रिया आदि सब करती हैं उपदेश भी देती हैं । तथा ज्ञान ध्यान स्वाध्याय में अपना जीवन लगाकर स्वपर कल्याण कर रही हैं। RECE 5ARIC 7 1 ....: न सम्पन्न कार्य है पर
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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