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( २८ ) बहुत से लोगों की यह धारणा है कि वर्तमान पंचम काल में मुनि ही नहीं हुवा करते हैं। परन्तु उनका विचार स्ववचन व आगम वाधित है वे भाई जरा आगमों की तरफ अपनी दृष्टि डालें तो उनको मालूम होगा कि यह श्रद्धा आगम से विपरीत है । पंचमकाल में गौतम गणधर मुक्ति को गये हैं । गौतम स्वामी के बाद सुधर्म स्वामी ने कैवल्य धाम को प्राप्त किया है। तदनन्तर क्रमसे विष्णु, नंदिमित्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रवाहु ये पाँच श्रुतकेवली इस पंचमकाल में हुए हैं। गौतम स्वामी व सुधर्माचार्य का काल पंचम काल प्रारम्भ होने के बाद ६२ वर्ष तक का है। अर्थात् पाँच श्रुतकेवलियों के अस्तित्व तक पंचमकाल में १६२ वर्ष बीत गये।
भद्रवाहु के वाद में प्रा० धरसेन स्वामी, आ० पुष्पदन्त, आ० भूतवली, आ० कुन्दकुन्द, आ० यतिवृषभ, आ० उमास्वामी, आ० पद्मनंदि, प्रा० पूज्यपाद, आ० जिनसेन, आ० संमतभद्र, आ० अकलंक, आ० नेमीचन्द्र, आ० गुणभद्र, आ० शुभचन्द्र आदि शान्तिसागराचार्य पर्यन्त सैंकड़ों आचार्य एवं मुनि हो गये हैं जिन्होंने अपने दिव्य विहार से धर्म का अपूर्व उद्योत किया है।
भगवान भद्रबाहु के परम शिष्य सम्राट चन्द्रगुप्त को जो सोलह स्वप्न हुए थे, उनमें एक स्वप्न यह था कि एक बछड़ा वड़े रथ को खींच कर ले गया । इसका फल आ० भद्रबाहु ने बताया था कि पंचम काल में तारुण्यावस्था में ही मुनिदीक्षा लेकर महाव्रत रथ का संचालन किया जावेगा। वृद्धावस्था में उसके लिए सामर्थ्य का अभाव रहेगा।
गुणभद्राचार्य ने उत्तरपुराण में कल्कियों का वर्णन करते हुए स्पष्ट वतलाया है कि एक हजार वर्ष में एक कलकी होगा इस प्रकार २० कलकी होंगे । अन्तिम कलकी राजा जलमंथन के शासन में चन्द्राचार्य के शिष्य वीरांगज नामक मुनि होंगे। ये अंतिम मुनि होंगे। इसी प्रकार अंतिम अजिका सर्व श्री, श्रावक अग्निल एवं श्राविका फाल्गुसेना होगी। ये चारों ही पंचम काल के ३ वर्ष ८|| माह बाकी रहते हुए शुभ भावना से भर कर पहले स्वर्ग में चले जावेंगे। क्या इससे स्पष्ट नहीं होता है कि पंचम काल के अंत तक चतुःसंघ विद्यमान रहेगा । इसलिए इसके विपरीत पंचमकाल में मुनि हो ही नहीं सकते, इस प्रकार की श्रद्धा आगम कथन से विपरीत है।
पू० प्राचार्य शान्तिसागरजी महाराज ने स्पष्ट रूप से कहा कि कलियुग में भी सतयुग के समान ही मुनि हो सकते हैं । इस पंचमकाल के मुनियों का भी पूर्व मुनियों के समान ही आदर करना चाहिए।
आगम में लिखा है
विन्यस्येदं युगीनेपु, प्रतिमासु जिनानिव ।। भक्त्या पूर्व मुनीनर्चेत्, कुतः श्रेयोति चचिनाम् ।। आशाधरजी ।