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जिस प्रकार रत्न पाषाणादिक की मूर्ति में साक्षात् जिनेन्द्र की स्थापना कर उपासना करते हैं इसी प्रकार इस काल के जैन मुनियों को भी पूर्व के मुनियों के समान ही मान कर भक्ति से उपासना करनी चाहिये ।
आचार्य श्री शांतिसागरजी के विहार से दक्षिरण के कोने से लेकर उत्तर प्रान्त प्रत्येक स्थान पर जो धर्म जागृति संघ के प्रसाद से हुई वह स्वर्णाक्षरों में लिखने योग्य है आचार्य श्री के द्वारा लाखों भव्य जीव संस्कार से संस्कृत हुए। हजारों ने रात्रि भोजन का त्याग किया, सैकड़ों ने मिथ्यात्व का त्याग किया, हजारों जीवों ने व्रत नियम संयम लेकर आत्म विशुद्धि की । इस प्रकार के क्रियात्मक चारित्र का प्रचार सैकड़ों विद्वान् मिल कर सैकड़ों वर्षों तक करते तो भी शायद ही सफल होते । क्योंकि चारित्र व ज्ञान का जो प्रभाव पड़ता है, वह केवल ज्ञान से नहीं पड़ता है । भगवान महावीर की विशाल संघ सम्पदा को जंनाचार्यों ने सम्भाला । जैनाचार्य विराट् व्यक्तित्व एवं उदात्त कृतित्व के धनी थे । वे सूक्ष्म चिन्तक एवं सत्यदृष्टा थे । धैर्य, औदार्य और गाम्भीयं उनके जीवन के विशेष गुण थे । सहस्रों-सहस्रों श्रुत-सम्पन्न मुनियों को लील लेने वाले विकराल काल का कोई भी क्रूर श्राघात एवं किसी भी वात्याचक्र का तीव्र प्रहार उनके मनोबल की जलती मशाल को न मिटा सका न बुझा सका और न उनकी विराट ज्योति को मंद कर सका । प्रसन्नचेत्ता जैनाचार्यों की धृति मंदराचल की तरह अचल थी ।
परमागम प्रवीण, भवाब्धिपतवार, करुणा कुवेर एवं जन जन हितैषी जैनाचार्यों की असाधारण योग्यता से एवं उनकी दूरगामी पद यात्राओं से अनेक राज्य एवं जन मानस प्रभावित हुए। शासन शक्तियों ने उनका भारी सम्मान किया । विविध मानद उपाधियों से जैनाचार्य विभूषित किये गये पर किसी प्रकार की पद-प्रतिष्ठा उन्हें दिग्भ्रान्त न कर सकी । पूर्व विवेक के साथ उन्होंने साधना जीवन की मर्यादा के अनुरूप जितना साहित्य लिखा जा सका लिखा । जैन शासन का महान् साहित्य जैनाचार्यों की मौलिक सूझ-बूझ एवं उनके अनवरत परिश्रम का परिणाम है ।
वर्तमान जैन शासन की परम्परा भगवान महावीर से सम्बन्धित है महावीर स्वामी का निर्वाण हुए २५१० वर्ष हो गये । १६-२० वीं शताब्दी में आचार्य शान्तिसागरजी ने जो वृक्ष लगाया वह आज भी प्रापके ही पट्टाचार्य शिष्य आचार्य श्री धर्मसागरजी बराबर संभाल रहे हैं । आचार्य शान्तिसागरजी महाराज लोकोत्तर महापुरुष व जगद्वंद्य आदर्श महात्मा थे । श्रापके अनेकों शिष्यों
भारत वर्ष में सर्वत्र विहार कर धर्मध्वजा फहराई है । आचार्य श्री के प्रथम दीक्षित शिष्य आचार्य वीरसागरजी एवं चन्द्रसागरजी, कुन्थुसागरजी, सुधर्मसागरजी, पायसागरजी आदि मुनिवृन्दों से धर्म जागृति हुई वह भवनीय है । इसी श्रृंखला में आचार्य श्री शान्तिसागरजी छाणी व आचार्य शिव