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सम्पादकीय
पुरातन भारत के इतिहास का पर्यवेक्षण करने पर ज्ञात होगा कि यहां श्रवण और वैदिक संस्कृति रूप द्विविध विचारधाराएँ विद्यमान थीं। जैन विचार पद्धति का उदय इस अवसर्पिणी काल में भगवान ऋषभदेव के द्वारा हुवा जिन्हें जैन धर्म अपना प्रथम तीर्थंकर स्वीकार करता है । जैन
आगम के अनुसार जैन तत्वचिंतन प्रणाली अनादि है, फिर भी इस युग की अपेक्षा जैन धर्म की स्थापना का गौरव भगवान ऋषभदेव को प्रदान किया जाता है। चौबीस तीर्थंकरों में ऋपभदेव प्रथम तीर्थकर माने गये हैं।
जैन धर्म अपनी मौलिकता और वैज्ञानिकता के कारण अपने अस्तित्व को शाश्वत धर्म के रूप में अभिव्यक्ति दे रहा है। भगवान महावीर इस युग के अन्तिम तीर्थंकर थे। उनके वाद आचार्यों की एक बहुत लम्बी शृंखला कड़ी से कड़ी जोड़ती रही है। सव आचार्य एक समान वर्चस्व वाले नहीं हो सकते नदी की धारा में जैसे क्षीणता और व्यापकता आती है वैसे ही आचार्य परम्परा में उतार-चढ़ाव आता रहा है । फिर भी उस शृखला की अविच्छिन्नता अपने आपमें एक ऐतिहासिक मूल्य है । पच्चीस सौ वर्षों के इतिहास का एक सर्वांगीण विवेचन महत्वपूर्ण कार्य है। हमारे दूरदर्शी आचार्यों ने अपने ग्रन्थों में मूल्यवान ऐतिहासिक सामग्री को संरक्षित कर रखा है अन्यथा जैन धर्म के इतिहास को कोई ठोस आधार नहीं मिल पाता।
दिगम्बर मुद्रा संयम, तप, त्याग और अहिंसा की भूमिका पर अधिष्ठित है अनन्त आलोक पुञ्ज महाबली तीर्थंकर की अनुपस्थिति में इस महत्वपूर्ण दायित्व का निर्वहन आचार्य करते हैं।
आचार्य व मुनि वृन्द विशुद्धतम आचार सम्पदा के स्वामी होते हैं। वे छत्तीस एवं अट्ठाईस मूलगुणों से अलंकृत होते हैं । दीपक की तरह स्वयं प्रकाशमान वनकर जन-जन के पथ को आलोकित करते हैं और तीर्थंकरों की पतवार को लेकर सहस्रों सहस्रों जीवन नौकाओं को भवाब्धि के पार पहुंचाते हैं।