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दिगम्बर जैन साधु उन दिनों, आचार विचार में मारवाड़ बहुत पिछड़ा था । पर जब १०८ मुनिश्री चन्द्रसागरजी विहार करते हुए सुजानगढ़ आये तब यहां के श्रावकों ने भी अपने को सुधार लिया। जब मोहनीबाई को उक्त मुनिश्री के आने और चातुर्मास की बात ज्ञात हुई तो मोहनीबाई भी अपनी माता के साथ दर्शन करने के लिए आई और मां के साथ ही स्वयं भी दूसरी प्रतिमा स्वीकार करली ।
चातुर्मास के बाद मुनिश्री ने, विहार किया तव मोहनोबाई भी उनके साथ अनेकों नगरों में गयी । वे आहार दान तथा धर्म श्रवण के कार्य करती थीं। सन् १९३६ में आपने सातवीं प्रतिमा स्वीकार कर ली । आपके भाई ( ऋद्धिकरण ) भाभी ने दूसरी प्रतिमा ली और मां ने पांचवीं प्रतिमा के व्रत स्वीकार किये । यहीं आपका परिचय अध्यापिका मथुराबाई से हुआ।
जब चन्द्रसागरजी ने कसाबखेड़ा ( महाराष्ट्र) में चातुर्मास किया तव मोहनीवाई और मथुराबाई ने उनसे आयिका की दीक्षा बावत निवेदन किया । मुनिश्री ने आगापीछा सोचकर उन्हें सन् १९४२ में क्षुल्लिका दीक्षा दो । अव ब्रह्मचारिणी मथुरावाई का नाम विमलमती रखा गया और ब्रह्मचारिणी मोहनोबाई को इन्दुमती कहकर पुकारा गया । आप दोनों ने पीछी कमण्डलु, श्वेत साड़ी व चादर के सिवाय सभी परिग्रह का त्याग कर दिया और ज्ञान तथा ध्यान की साधना करने में लगी।
जव सुजानगढ़ निवासी चांदमल धन्नालाल पाटनी ने मुनिश्री चन्द्रसागरजी से बड़वानी की ओर विहार करने और स्वनिर्मित मानस्तम्भ की प्रतिष्ठा में सम्मिलित होने के लिए प्रार्थना की तव इन्दुमतोजी भी संघ के साथ चली।
जब नागौर में मुनिराज आचार्य श्री वीरसागरजी का चातुर्मास हुआ तव आपने उनसे आर्यिका दीक्षा ली और अपनी साध पूरी की। उनके संघ में रहकर आपने अनेक तीर्थों की यात्रा की। आपने भारतवर्ष के समस्त प्रान्तों में विहार कर धर्म प्रभावना की है।
__सन् १९८२ में तीर्थराज सम्मेदशिखरजी पर आपको अभिनन्दन ग्रन्थ भेंट किया गया था। आपने उमे स्वीकार नहीं किया । धन्य है आपका त्याग तथा सिंहवृत्ति जीवन । ८० वर्ष की उम्र में आप परम शान्त जितेन्द्रिय हैं । जिनागम पर आपकी अपार आस्था है।
NAGAR
ANDED