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दिगम्बर जैन साधु
आचार्य महाराज कोथूर में विराजमान थे । मैंने उनके सत्संग का लाभ लिया वे वोले "तुम शास्त्र पढ़ा करो | मैं उसका भाव लोगों को समझाऊंगा ।" मैं कक्षा ५ तक पढ़ा था । मुझे शास्त्र पढ़ना नहीं आता था । भाषरण देना भी नहीं आता था, धीरे धीरे मेरा अभ्यास बढ़ गया । आचार्य महाराज के सम्पर्क से हृदय के कपाट खुल गए। उनके सत्संग से मेरे मन में मुनि वनने का भाव पैदा होगया ।
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मिसागरजी महाराज का गृहस्थ जीवन बड़ा विचित्र था । मुसलमानों के सम्पर्क के कारण मुस्लिम दरगाह में जाकर पैर पड़ा करते थे । सोलह वर्ष की अवस्था तक वे अगरवत्ती जलाते और शक्कर चढाते थे ।
आचार्य महाराज के सम्पर्क के कारण जीवन में परिवर्तन हो गया । वे खेती करते थे ।
दोनों ने मण्णा और रामू ( कुन्थुसागरजी ) साथ साथ खेती का कार्य करते थे । आचार्य महाराज से सम्पर्क के कारण वैराग्य का भाव जागृत हो गया ।
उन्हें नन्दिमित्र की कथा बड़ी प्रिय थी । जो पलासकूट ग्राम में देविल वैश्य के घर पुण्यहीन पुत्र नंदिमित्र ने जन्म धारण किया । माता पिता ने उसे घर से निकाल दिया। वहां से चलकर अवन्ति देश में विद्यमान वैदेश नगर में पहुंचा, उसने नगर के बाहर कालकूट नामके लकड़ी बेचने वाले को देखा । नन्दिमित्र ने कालकूट से कहा- तुम लकड़ी का जितना बोझा बाजार में ले जाते हो उससे चौगुना बोझा प्रतिदिन मैं लाकर दूंगा ।
यदि तुम मेरे परिश्रम के बदले मुझे भोजन दिया करो तो मैं काम करने को तैयार हूं ।
- कालकूट ने यह बात स्वीकार करली और उसे रूखा सूखा भोजन देने लगा । एक दिन उसकी स्त्री ने उसे भरपेट खीर का भोजन खिलाया वह उससे नाराज हुआ और नन्दिमित्र को घर से निकाल दिया ।
उसने एक मुनिराज को देखा और उनके साथ हो लिया । श्रावकों ने नया शिष्य समझकर भोजन करा दिया । एक दिन महाराज ने उपवास किया, उसने महाराज के पास के कमंडलु और पीछी लेकर चर्या को उठा और भोजन के लिए गया पर यह सोचकर मैं यदि श्राज भोजन नहीं करूंगा तो श्रावक मेरा विशेष आदर करेंगे। उसने तीन दिन तक ऐसा ही किया। चौथे दिन अवधिज्ञानी मुनि ने कहा- नन्दिमित्र तेरी आयु अन्तर्मुहूर्त शेष रही है । इसलिये तू सन्यास धारण कर । उस भद्र आत्मा ने सन्यास धारण किया वह स्वर्ग में जाकर देव हुआ वहां से चयकर चन्द्रगुप्त के रूप में उत्पन्न हुआ ।