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• दिगम्बर जैन साधु ठीक होनी चाहिये जिससे ये शिक्षित हो जायें और खोटे कर्मों से बचकर अच्छे कार्य करने लगें। इनके अन्दर की बुराईयां मसलन, मद्य, मांससेवन, जुआ, शिकार, जीव हिंसा आदि कर्म तथा मैला कुचेला रहना आदि पहिले दूर करना चाहिये । आपका ज्वलंत प्रभाव तव प्रकट हुआ, जब भारत सरकार ने एक विल पार्लियामेन्ट में रखा जिसमें जैन धर्म को हिन्दू धर्म स्वीकार किया जा रहा था। इस बिल पर भारत वर्ष की जैन संस्थायें चिन्तित हो उठीं। परम पूज्य चारित्र चक्रवर्ति श्री १०८ आचार्य शान्तिसागरजी महाराज की दृष्टि पूज्य नमिसागरजी महाराज पर गयी । उन्हें आदेश दिया कि दिल्ली में शासन को प्रभावित कर जैन धर्म को हिन्दू धर्म से पृथक् रखवायें। महाराज ने ऐसा प्रयत्न किया कि उन्हें सफलता मिली और गुरु आदेश की पालना की।
अगस्त १९५५ में पूज्य आचार्य शान्तिसागरजी के कुन्थलगिरि में समाधि मरण लेने के समाचार ज्ञात होते ही आपने फल व मीठे का आजन्म त्याग कर दिया। एक वर्ष तक अन्न का त्याग कर दिया और जो उद्गार आचार्य श्री ने अपने गुरु के प्रति प्रकट किये वह चिरस्मरणीय व स्वक्षिरों में अंकित होने योग्य हैं । -
आचार्यश्री का स्वभाव नारियल जैसा था ऊपर से कठोर और अंतरंग में नर्म था। धर्म व धर्मात्मा के प्रति इतने उदार थे कि कभी भी उनका ह्रास देखना पसन्द नहीं करते थे। वे कभी भी संघ में शिथिलाचार नहीं देख सकते और सदैव संघ पर कड़ी दृष्टि आचरण पालन की ओर रखते। शिक्षण संस्थाओं से उन्हें काफी प्यार था। गरीबों के हितू होने के कारण आपके चरणों में सभी जाति के स्त्री पुरुष भेद भाव भुलाकर आते थे।
आचार्यश्री १९५१ में जब दिल्ली पधारे तब वे एक संकल्प लेकर आये थे। हरिजन-मन्दिर प्रवेश को लेकर पूज्य आचार्य शान्तिसागरजी महाराज ने अनशन कर दिया था उनके अनशन को तुड़वाना और जैन मन्दिरों को हिन्दू मन्दिरों से पृथक् करना यह संकल्प न्यायाचार्य पं० दरबारीलालजी कोठिया के सम्पर्क से पूज्य श्री १०५ गणेशप्रसादजी वर्णी को आचार्य श्री ने अपने संकल्प का साधक माना । फलतः आचार्य श्री अपने मिशन में सफल हुए और पूज्य वर्णीजी के प्रति अनन्य समादर करने लगे । अन्त में आचार्य श्री वर्णीजी के सान्निध्य में बड़ौत (मेरठ) से , प्रस्थान कर ईसरी ( सम्मेदशिखर ) पहुंचे और इन्हीं के निकट सन् १९५७ में समाधि पूर्वक देह त्याग किया।